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छाँव --- मीना पाठक

वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर
आँचल की
ममता दे सींचा
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा
ताकि वक्त
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए
निहारती रही
पल-पल
अब वो नन्हें
से अंकुर
विशाल वृक्ष
बन चुके हैं
और मैं बैठी हूँ
उस वृक्ष की
शीतल छाँव में
आनन्दित
मगन
अपने आप में ||


मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 600

Comment

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Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:11am

हार्दिक आभार रेखा जोशी जी 

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:09am

आ. रविकर जी सादर आभार 

Comment by Rekha Joshi on March 4, 2013 at 10:18pm

अब वो नन्हें 
से अंकुर 
विशाल वृक्ष 
बन चुके हैं 
और मैं बैठी हूँ 
उस वृक्ष की 
शीतल छाँव में 
आनन्दित 
मगन
अपने आप में || अति सुंदर अभिव्यक्ति मीना जी ,बधाई 

Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 4, 2013 at 9:06pm
बहुत सुन्दर ममता से सनी हुई कविता के लिए धन्यवाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 3, 2013 at 10:10pm

और वो  छाँव हमेशा शीतल बनी रहे मंगल कामना के साथ बधाई इस सुंदर प्रस्तुति पर| 

Comment by Pankaj Trivedi on March 3, 2013 at 3:14pm

बहुत कोमल भाव है मन के...

Comment by pawan amba on March 3, 2013 at 12:53pm

और मैं बैठी हूँ 
उस वृक्ष की 
शीतल छाँव में 
आनन्दित 
मगन
अपने आप में ||...bahut khubsurat ehsaas ....

Comment by रविकर on March 3, 2013 at 12:02pm

जबरदस्त भाव-
शुभकामनायें आदरेया ||

कृपया ध्यान दे...

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