--छन्द --
तन जरत, मन बरत, लगत सर, टप-टप टपकत चलत रकत धर।
हरत न भव-भय मन इरष कर, हर-हर बरषत झरत छपर घर।।
तन क्षरत मन कस न ठगत नर, जल घट भर-भर भरत नगर सर।
तन-मन-धन सब धरन कंत घर,हस-हस मरकर सरग चलत नर।।4
सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाषित रचना
Comment
लर्वल्ध्वक्षर छन्द .. कृपया इस छंद का विधान साझा करें भाई केवल प्रसादजी. उसके उपरांत ही मैं कुछ कह पाऊँगा.
आदरणीय सौरभ पाण्डे-गुरूजी, सुप्रभात! ‘बिन गुरू ज्ञान कहाँ से पाऊँ सर जी, यह छन्द मैने 03.04.1991 में लिखा था! इसे ‘लर्वल्ध्वक्षर छन्द‘ में लिखने का प्रयास था! ‘कंत‘ मे चन्द्रबिन्दी समझ कर लगायी है! कृपया कोई त्रुटि हो तो निर्देश देने की कृपा करें और आशीष बनाये रखें! कृतज्ञ पूर्ण बहुत बहुत आभार..!
चार पदों में मात्र एक गुरु का प्रयोग.. यह क्या छंद है, इसे स्पष्ट करें ?
तन-मन-धन सब धरन कंत घर,हस-हस मरकर सरग चलत नर- बहुत सुंदर बधाई केवल सर
क्षण क्षण घटत वय पग पग सरत,हस हस सरक सरग चल नर -लक्ष्मण प्रसाद
तन क्षरत मन कस न ठगत नर, जल घट भर-भर भरत नगर सर।
तन-मन-धन सब धरन कंत घर,हस-हस मरकर सरग चलत नर।।4
बहुत खूब
बहोत ही बढ़िया कहा आपने आदरणीय केवल भाई जी .....सादर
अजब गजब
पढ़ कर मन हरष हरष कर-
मंगल मंगल
जय जय-
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