बहर : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
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जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे
झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से
लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने लगे
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे
कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे
भूख इतनी भी न बढ़ने दीजिए मेरे हुजूर
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे
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स्वरचित एवं अप्रकाशित
Comment
जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे------इतना भी घमंड ठीक नहीं
झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से
लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने लगे-------जितना झुकते हैं लॊग तो सीधा समझ कर फायदा ही उठाएंगे ना
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे--------------पुलिस वाले की छोडिये पार्लियामेंट में क्या होता है जहां कितना बड़ा बापू का फोटो होता है ---बढ़िया कटाक्ष
कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे---------------कल तक थी बस जाने आगे क्या होगा
भूख इतनी भी न बढ़ने दीजिए मेरे हुजूर
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे------भूख तो बढती ही जा रही है आज कल शार्क को भी निगल जायेंगे ---बहुत बढ़िया व्यंग्य
बहुत शानदार ग़ज़ल हर शेर व्यंग्य का तीर चुभोता हुआ ,दाद कबूल करें
शानदार ग़ज़ल हुई है
हर एक शेर कामयाब हुआ है
एक एक शेर के लिए ढेरों ढेर दाद
सर्वप्रथम विशिष्ट काफ़िया केलिए बधाई.
फिर मतले से लेकर आखिरी शेर तक जो कुछ बयां हुआ है वह पूर्ववत आश्वस्त करता है कि इस ग़ज़ल पर दिया गया समय सार्थक हुआ.
झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से
लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने लगे
इस तेवर के लिए विशेष बधाई... .
भूख इतनी भी न बढ़ने दीजिए मेरे हुजूर
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे..
क्या अंदाज़ है कहने का.. . वाह वाह !
ढेर सारी दाद कुबूल फ़रमाइये, भाई.. .
बढ़िया गजल हुई है आ. धर्मेन्द्र कुमार जी
ये शेर बेहद शानदार लगा
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे
बहुत सुन्दर लिखा है आपने! वर्तमान दशा पर आपका व्यंग्य बहुत सटीक और झकझोरने वाला है।
बहुत सुन्दर गज़ल लिखी है आ० धर्मेन्द्र सिंह जी, सभी व्यंग बहुत पसंद आये... हार्दिक बधाई
सुन्दर गजल के माध्यम से शानदार व्यंग की लिए हार्दिक बधाई स्वीकारे श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,
अंतिम शेर में रोहू का क्या अर्थं है जो इस गजल का शीर्षक भी है
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