गतांक-1 से आगे......सतसंग में हजारों का गुप्त दान करके स्वयं को धन्य समझ लेते हैं किन्तु रिक्शे वाले को पूरे पांच रूपये भी नहीं देना चाहते हैं। ईश्वर प्राप्ति हेतु अपने जिज्ञासु मन को सतसंग परिसर के गेट पर नमस्कार के साथ ही टांग देते हैं और जैसे आये थे, ठीक वैसे ही पुनः घर की ओर खाली मन, अज्ञान, संसारिक माया -मोह, व्यापार -व्यवहार आदि जंजाल के साथ चल पड़ते हैं। गृह में प्रवेश करते ही बहुओं, नौकरो आदि पर अव्यवहारिक बातें मढ़़ते हुए प्रपंच शुरू कर देते हैं। यहां तक कुछ लोग तो सतसंग में भी सुबह का हलुवा, नाश्ता और काम वाली बाई को बरतन, कपड़े आदि देने जैसी व्यर्थ की बाते करना नहीं भूलते हैं। फलतः गुरूजी ने कब ज्ञान का पैकेट जिज्ञासुओं में बांट दिया, इन्हें हवा भी नही लगती है और ऐसे लोग ही बाद में गुरूजी की भर्तसना करने से भी नहीं चूकते हैं। ऐसे हैं नश्वर जगत के जीव। बीमार को क्या चाहिए-दवा और दुवा। दवा न भी मिले तो कोई बात नहीं, किन्तु उसे संतुष्टि-आराम- संतोष-विश्वास कुछ तो मिलना ही चाहिए। इसके प्रतिकूल जब जीव जगह-जगह जाता है और अहं, मद, में धन, पराक्रम आदि सब कुछ व्यय कर देता है। तब जीव को ईश्वर का अनायास ही ध्यान आ जाता है, जो उसके अन्दर सदगुरू बन बैठा है। जिसे वह अपने जन्म के साथ ही भुला देता है और यह तभी याद आता है जब जीव का अस्थित्व पुनः उसी उद्गम केन्द्र में विलय होने का समय आता है।
आज कुछ ऐसा ही हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अब जीव का अन्त समय अति निकट है। पल भर का भरोसा नहीं रह गया था। अचानक ही अपना सब कुछ खोते हुए, देख स्वतः ही ज्ञान चक्षु खुल गये और अपनी 40 वर्षो की भगवत भक्ति, दया-दान, पुन्य-पाप, धर्म-कर्म आदि का लेखा जोखा मात्र दो-तीन सेकेन्ड में कर लिया था। शायद मेरे जीवन में मैंने किसी से बैर नहीं किया था और न ही मुझे कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई दिया, जिसका मैं बैरी होउं। मैंने किसी जीव से से कुछ नहीं लिया था। बल्कि यथासम्भव- यथा सामथ्र्य सभी को कुछ न कुछ दिया ही था। फिर भी मैंने कुुछ एक को ऐसा पाया जो शायद शंकावश मुझसे अप्रसन्न लग रहे थे। सो मैंने तत्काल प्रभु से उनके लिये क्षमा मांगा क्योंकि उनकी प्रकृति और व्यवहार को बदलने वाला भला मैं कौेन था? जिनका मैं किसी तरह कोई उपकार कर सकता था, उसके लिए भी मैंने उस परमपिता परमेश्वर से दया की भीख मांगी। हे! ईश्वर अमुक व्यक्ति का जो कार्य मेरे प्रयास द्वारा होना था, उसके लिए आप किसी अन्य को व्यवस्थित कर देना क्योंकि मैं तो शून्य की ओर जा रहा हूं। ऐसा इसलिए भी लग रहा था कि जो समर्थ हैं, उन्हे ईश्वर क्षण मात्र में वैज्ञानिक विधियों से तत्काल राहत पहुंचा रहे हैं। और वह ईश्वर ही है, जो मुझे 10-12 वर्षो से बस दर्द ही दिये जा रहा था। मुझे फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं थी। बस विश्वास था। अपने उस क्षणिक बाल्यकाल का जिसमें मैंने अपने इष्टदेव श्री हनुमानजी की पूजा की थी। पूजा की विधि तो आज भी नहीं ज्ञात है किन्तु जैसा लोगों से सुना और जितना मैं कर सकता था, बडे़ ही लगन और श्रध्दा के साथ अर्चना किया करता था। यहां तक कि मैं अपने ईष्टदेव को कभी भी स्वयं से अलग नही पाता था। यदा-कदा मेरे स्वप्न में भी आकर मुझे भविष्य और ज्ञान की बात बता जाया करते थे, और मैं उनका अनुकरण ही करता रहता था। जैसे ही मुझे आभास हुआ कि आज मेरी अन्त बेला आ गई है। मैंेने सारा बन्धन खोलकर अपने ईष्टदेव के हाथों में पकड़ा दिया और मैं तैयार हो गया, चिर आनन्द विहार के लिए। सहसा एक किरन जुगुनु सी झिलमिल कर गई। शायद मेरे भगवान ने ही यह आशा रूपी एक किरन प्रस्फुटित हो मन में आश्रय पा गई। पलभर में ही मेरा मन अनायास बदल गया। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यह सब कैसे हो रहा है? मेरे मुख- मस्तिष्क में बस हनुमान चालीसा का पाठ चल रहा था और क्रमिक रूप से चलता ही रहा। ....क्रमशः3
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आ0 अशोक कुमार रक्ताले जी, हां जी, प्रभु प्रेम क्या कुछ नही करता है, सब उसी का दिया है। आपने पूरी कथा पढ़ी। आपके आशीष भरे स्नेह से मै कृत्य कृत्य हो गया। आपका हार्दिक आभार। सादर,
"ईश्वर प्राप्ति हेतु अपने जिज्ञासु मन को सतसंग परिसर के गेट पर नमस्कार के साथ ही टांग देते हैं और जैसे आये थे, ठीक वैसे ही पुनः घर की ओर खाली मन, अज्ञान, संसारिक माया -मोह, व्यापार -व्यवहार आदि जंजाल के साथ चल पड़ते हैं"
बिलकुल सही कहा है आपने आदरणीय केवल प्रसाद जी.
आदरणीय श्रीडा0 स्वर्ण जे0 ओंकार जी, आपको इस कथा..‘जो ध्यावे फल पावे सुख लाये तेरो नाम.....।‘ में ईश्वर भविष्य की राह को और रोचक गति देने वाले हैं। आपका हार्दिक आभार। सादर,
प्रिय केवल प्रसाद जी
आदरणीय राजेश कुमार झा जी, आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
बहुत ही सुंदर भाव धरा पर रचना चल रही है, ऐसा लग रहा है कि आत्ममंथन एवं चिंतन दोनों साथ चल रहे हैं । आप लिखते रहें, सादर
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