ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है
तुम जैसी नहीं
इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को
कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से.. . तुम !
किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...
कठोर !
********************
-सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
/ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है/
/किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?/
/मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में.../
इन बहुआयामी पंक्तियों को कहने वाला कोई साधारण कवि नहीं हो सकता. कहने को तो यह केवल पंक्तियाँ भर हैं, पर इन पंक्तियों में छिपे हुए भावों को जीना सहज नहीं. 'कठोर!' प्रयुक्त तो उलाहने की तरह हुआ है, पर दूसरे दृष्टिकोण से यह 'मैं' पर भी सही फिट होता है. सच में अद्भुत है यह कविता.
फिर से कहता हूँ कि नज्मों में कमाल की मंज़र-निगारी के लिए मैं 'गुलज़ार' का फैन हूँ. पर हिन्दी कविताओं के 'गुलज़ार' तो आप ही हैं.. न किसी के लिए सही तो कम से कम, मेरे लिए.
सादर
आदरणीया सीमाजी, आदरणीय जवाहर भाई और आदरणीया नूतनजी, आपको मेरा प्रयास रुचिकर लगा इस हेतु हृदय से धन्यवाद.
परस्पर सहयोग बना रहे.
सादर
वाह सौरभ जी!
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...
कठोर !
अद्भुत ... उम्दा
किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...
कठोर !
आदरणीय महोदय, सादर अभिवादन!
बिलकुल अलग सा भाव ! सादर ...
ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है........सीधी साफ़ बात पर मन के किसी भीगे कोने से बरसती हुयी
तुम जैसी नहीं
इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है........... तटस्थता विरोध से कही अधिक सालती है मौन शब्द से अधिक टीसता है
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को
कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से.. . तुम !.......कितने जाने पहचाने फिर भी ना जाने से 'ऐसा क्यों' के अनुत्तरित ...............................................................................प्रश्न को जीते रहना बहुत कठिन होता है
किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को.................थामने का एहसास एक बार पर रीतने की छटपटाहट सालोंसाल, लगातार
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में.......................................मैं मुट्ठी होती रही लगातार //गुमती हुई खुद में.......अंतराग्नि को स्वयं ही पीते रहना और सौम्य बने रहना फिर धीरे धीरे एक दिन स्वयं से ही बिछुड़ जाना ..बहुत कष्टप्रद अहसास ..........
अन्दर तक किसी रिक्तता को ढोती हुयी शांत गति से एक उलाहने के साथ कठोर ! संपन्न होती इस रचना को सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं है इसे महसूस भी किया जा सकता है
जय हो सौरभ जी आपकी इस सशक्त रचना के लिए
.
आदरणीय अनवर सुहैल साहब, आप जैसा सुरुचिपूर्ण रचनाओं का रचनाकार जब किसी अन्य की रचना के विषय में सकारात्मक बोलता है तो यह उस रचना की मात्र वाहवाही नहीं होती.
आपका सादर धन्यवाद.
भाई राजेश झाजी, आपने अपने तथ्यों को स्पष्टता से साझा किया है.
वस्तुतः किसी रचना का पाठक को समझ में न आना रचनाकार के दोष के रूप में ही जाना जाता है. इसी तथ्य के अनुरूप हमने सोचा था. आपको रचना पसंद आयी यह मेरे लिए परम संतोष की बात है.
सहयोग बना रहे.
भावनाओं और संवेदनाओं का ज्वार-भाटा....अच्छी कविता है, बधाई
//भाई राजेशजी आपने संप्रेषण की कमियाँ बतायीं//
आदरणीय, आपकी इस टिप्पणी पर अचरज में पड़ गया । संप्रेषणीयता का प्रश्न तो वहां उठता है जब यह प्रश्न आपके समतुल्य या आपसे कद में ऊंचे व्यक्ति उठाएं । मैं तो आपके आस-पास भी नहीं हूं , अत:यहां संप्रेषणीयता का प्रश्न तो उठता ही नहीं है । मैं बिना समझे वाह-वाह तो नहीं कर सकता और अगर कोई चीज मेरी समझ से परे है तो मैं कैसे कह दूं हां मुझे सब समझ में आ गया । आपके प्रति मेरा आदर भाव गुरू-शिष्य परंपरा में आबद्ध है जहां गुरू को प्रश्न अपने शंका समाधान हेतु किया जाता है, अपने ज्ञान को विस्तार देने के लिए किया जाता है और मैं इसीका पृष्ठपोषक हूं, आशा करता हूं आप मेरी भावनाएं समझ गए होंगे । आपके स्नेह का अभिलाषी हूं, सादर
आदरणीया उषा तनेजाजी, आपको रचना पसंद आयी, इस हेतु सादर धन्यवाद.
सहयोग बना रहे
सादर
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