पीछे से बुलाते हो |
एक दिन सोचूंगी मैं
कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं
तितलियों से आगे
कागज का जहाज
उडाऊं मैं |
अभी हिम्मत है, हौसला है, जोश है
और जिम्मेदारियों का फैला बोझ है
पत्ता पत्ता हरियाली उपजाऊं मैं
इस जंगल से निकलने का मार्ग न पाऊं मैं
तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं मैं|
जिस दिन थक कर चूर हो जाउंगी
और इस जंगल के लिए अवांछित हो जाउंगी
झड चुके सूखे पत्तों में भी ठौर न पाऊंगी
तब जब खुद का बोझा उठा न पाउंगी|
और हरियाले जंगल से निष्काषित कर दी जाउंगी मैं......
उस दिन मेरे साथी मेरे बचपन
तुम पीपल की छाँव तले आना
मुझे अपने गले लगाना
भूल न जाना पुराना पगडंडियों वाला रस्ता
साथ में ले आना स्कूल का बस्ता
माँ के हाथ का टिफ्फिन रोटी खायेंगे
फिर हम कागज की नाव बहायेंगे
तितलियों के पीछे उड़ते चले जायेंगे
चन्दा की नगरी में
परियों की बस्ती में
एक बेफिक्र जीवन होगा
अबकी न बिछडेंगे हम
बचपन तुझसे मिलने आयेंगे हम .............................
Comment
बहुत प्यारी रचना है | बधाई स्वीकारें आदरणीया |
@अशोक जी @ सुरेंदर जी... आपका शुक्रिया
धन्यवाद डॉ प्राची सिंह जी... अभी इस पर और कार्य किया जाएगा ..सादर
@बृजेष कुमार जी ! आप का प्रश्न सही है... और जब कोई प्रश्न मन मे जागता है तो उसे पूछ लेना ही बेहतर होता है न कि वह प्रश्न मन के अंदर दम तोड़ ले..
१) कि का प्रयोग मन का अभी भी दो राहे मे खडा होना, उसे भविष्य मे भी स्पष्ट नहीं कि ऐसा हो भी पायेगा कि नहीं...
वैसे कि के बिना भी काम चल सकता है... लेकिन 'कि' अपनी बात पर अतिरिक्त दबाव देता है ...
२) आखिरी पंक्ति मे 'हम' इसे मैंने पढ़ा और खुद मेरे मन ने ये हम क्यू लिख दिया .. लेकिन उसे एडिट नहीं कर पायी... इसे अब सही कर दूंगी....
आपका सादर धन्यवाद
raam shiromani pathak ji... dhnyavaad ...
तब जब खुद का बोझा उठा न पाउंगी|
और हरियाले जंगल से निष्काषित कर दी जाउंगी मैं......
उस दिन मेरे साथी मेरे बचपन
तुम पीपल की छाँव तले आना
मुझे अपने गले लगाना
बचपन की मीठी याद दिलाती सुन्दर रचना. बधाई.
खूबसूरत कोमल भाव..
बचपन के निश्चिन्त पल, एक बार चले जाएँ तो लौट कर नहीं आते..दिल उन्हें बार बार जीना चाहता है, पर जिम्मेदारियों की बेड़ियाँ वापिस लौटने ही नहीं देती..
भाव बहुत सुन्दर हैं, पर शिल्प पर अभी और कसावट चाहिए...
आदरणीय बृजेश जी के कहे से पूर्णतः सहमत हूँ...
शुभकामनाएं
बहुत सुन्दर रचना आदरणीया! बचपन जीवन का वह सुखद दौर है जो जीवन में कभी भूले नहीं भूलता। जीवन की सारी आपाधापी, छल कपट के बीच बारबार अपनी ओर बुलाता रहता है। बधाई।
दो बातें कहना चाहता हूं जो मुझे अखरीं। वैसे आप मुझसे अधिक जानकार और प्रतिष्ठित हैं।
पहली बात -
//कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं //
इस पंक्ति का प्रारम्भ ‘कि’ से किया जाना आवश्यक नहीं था।
दूसरी बात कि कविता प्रारम्भ में मैं की बात कर रही थी और अंत तक पहुंचकर हम की बात करने लगी।
//तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं मैं//
//बचपन तुझसे मिलने आयेंगे हम//
ये क्यों?
आशा है आप इसे कुचेष्टा न समझेंगी और अन्यथा न लेंगी।
सादर!
सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया ////////
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