कैसा समाज // कुशवाहा//
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जनम लेत बालिका जननी न सुहात है
माम सुन चाहत है मात नही भात है
कृष् काय बदन लिये तन पर नहि गात है
चौराहे अन्न सडत कैसा सुप्रभात है
वैभव विहीन वो जनम काली रात है
कली न खिली अभी भंवरे मडरात हैं
खग गगन उड़न चहे बाजों का राज है
सखि संग खेलन गयी संझा की बात है
मैला आंचल हुआ लुटी सगरी रात है
दोषी भला ये क्यों अपने ही भ्रात हैं
संस्कार विहीन ये अपराध सम्राट हैं
दिया नहि ध्यान कभी कहाँ कहाँ जात हैं
अपराधी बने वे करत पश्चाताप हैं
घर में बैठ कभी करत नही बात हैं
पैसा पैसा करत मरते दिन रात हैं
शूल बन पथ में आज कंटक चुभत जात हैं
संस्कृति सभ्यता ज्ञान से नहि कुछ नात है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
२४-४-२०१३
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
आदरणीय जवाहर सिंह जी
सस्नेह आभार
आदरणीय लड़ी वाला जी
सादर
प्रोत्साहन हेतु आभार
आदरणीय अनुज श्री अशोक जी
सस्नेह.
अनुमोदन हेतु आभार
आदरणीय वर्मा सर जी
सादर
प्रोत्साहन हेतु आभार
प्रिय राम शिरोमणि पाठक जी
सस्नेह आभार
प्रिय केवल प्रसाद जी
सस्नेह आभार
सादर आभार
आदरणीय भ्रमर जी
आदरणीय महोदय, सादर अभिवादन!
कैसा समाज है जिसके हम सभी अंग है
जन्मते ही करना पड़े विकृतियों से जंग है
सुन्दर रचना जिससे मन में समाज की प्रति गुस्सा आ रहा है पर असहाय से मन मसोस रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकते
बधाई श्री प्रदीप सिंह कुशवाहा जी
आदरणीय प्रदीप जी सादर, समाज को कलंकित करती घटनाओं और कारण पर लिखी हृदयस्पर्शी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
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