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तेरे युग में, मेरे युग में/पापा कोई मेल नहीं है

अलसाई

आंखों से उठना

जूते, टाई

फंदे कसना

किसी तरह से

पेट पूरकर

पगलाए

कदमों से भगना

ज्ञान कुंड की इस ज्‍वाला में

निश दिन जलना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

पंछी, तितली

खो गए सारे

धब्‍बों से

दिखते हैं तारे

फूल, कली भी

हुए मुहाजि़र

प्राण छौंकते

कर्कश नारे

धक्‍के खाते आना-जाना

धुआं निगलना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

तुमको जो

मैदान मिले थे

हरे-भरे

उन्‍वान मिले थे

आंगन, देहरी

बाग-बगीचे

हर जर्रे में

जान मिले थे

जिन डब्‍बों में हम रहते हैं

उनमें रहना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

खिड़की से

बारिश को तकना

बंदिश में घुट

आंसू पीना

और उठाकर

कोरा कागज

नौका, पानी

नीरस अकना

ऐसे सीलन भरे समय में

सुर में गाना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

सौ में सौ

नंबर को पाना

ऊँची शोहरत

नाम कमाना

बड़ा कषैला

मेरा समय है

मुश्किल हरपल

साख बचाना

काल कलन के कलपुर्जों संग

ताल मिलाना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

सिर पर है

तलवार दुधारी

राहों में

संगीन पड़े हैं

जहां जिधर भी

नज़र घुमाऊं

लोग-बाग ले

बीन खड़े हैं

ऐसी झंझा में दीपक को

रोज जलाना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

तुम भी तो

थामे हो नपने

रूह जलाती

तेरे सपने

क़दम बढ़ाते

भी डरता हूं

कहीं लगो ना

तुम्‍हीं धधकने

चरमर कंधों की पीड़ा को

रोज दबाना खेल नहीं है

तेरे युग में .....................

(पूर्णत:मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on May 2, 2013 at 3:02pm

आपका सादर आभार, स्‍नेहाकांक्षी हूं, सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2013 at 2:17pm

इस रचना के लिए हृदय से बधाई, आदरणीय राजेश कुमारझा जी.

इस रचना के ऊपर डॉ. प्राची के विचार उचित और सही हैं.

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on May 2, 2013 at 1:43pm

आदरणीय प्राची जी, आपके प्रोत्‍साहन के लिए आभारी हूं । मुझे रचना का कोई शीर्षक सूझ ही नहीं रहा था सो मुख्‍य पंक्तियों को ही शीर्षक लिख बैठा और हाथ खाली हो गए । रही बात इसके बाल साहित्‍य में होने की तो मेरे हिसाब से बाल साहित्‍य लिखने के लिए अर्धनारीश्‍वर होना जरूरी है, एक बालक कोमलता में, सरलता में नारीसुलभ है तो अपनी चपलता में नरसुलभ होता है जिसकी मनोवृत्तियों का सही अंकन करने के लिए ही अर्धनारीश्‍वर होना पड़ता है जो मुझसे संभव नहीं, इस हेतु मन को जितना सीधा और सच्‍चा रखने की जरूरत है उतनी सच्‍चाई मैं अपने अंदर नहीं पाता हूं । अगर कभी उतना सच्‍चा हो सका तो जरूर प्रयास करूंगा , सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 1, 2013 at 6:33pm

आदरणीय राजेश जी, 

इस रचना को तो बाल साहित्य समूह की शान बनना था.....  :)))

सचमुच आज के बच्चे बहुत मुश्किल चुनौतियों का सामना करते हैं.  उनका सहज पन, उन्मुक्तता, स्वप्नों की खुली खिड़कियाँ, प्रकृति के साथ संपर्क, उनके आस पास के रिश्ते ...सब कुछ एक आरोपित जड़ता से श्रापित ही लगते हैं...

आज के बच्चों की ज़िंदगी को हृदय से महसूस करके लिखी गयी मर्मस्पर्शी सुन्दर अभिव्यक्ति.

बहुत बहुत बधाई आ. राजेश जी 

मुख्य पंक्ति को कविता के आरम्भ में क्यों नहीं लिखा गया?  इसका कारण जानना चाहती हूँ .सादर.

Comment by राजेश 'मृदु' on May 1, 2013 at 1:37pm

सादर आभार रक्‍ताले साहब

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 30, 2013 at 8:55pm

आदरणीय राजेश कुमार झा साहब बच्चों की आज की दशा को बेबाकी से बयान करती सुन्दर रचना. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by राजेश 'मृदु' on April 30, 2013 at 7:08pm

आपका हार्दिक आभार भावना जी

Comment by भावना तिवारी on April 30, 2013 at 2:39pm

.........aisaa lagtaa hai jaisey ...aaj ki  saamaajik ...atithi ka ,pooraa pooraa rekhaankan kheench diyaa gayaa ho ...rachnaa ke saath swayam ko bhi ..chaltaa huaa saa mehsoos karnaa sahaj hi huaa ...Rajesh Kumar Jha ji ...ki soch aur rachnaa dharmitaa ki hardik badhi ...........

Comment by राजेश 'मृदु' on April 30, 2013 at 2:07pm

ओबीओ के सुधी जनों से सादर निवेदन कहना चाहूंगा कि यह रचना आज के जेनरेशन पर बढ़ते जा रहे दबाव को केंद्र में रखकर लिखने का मैंने प्रयास किया है  एवं उसी परिप्रेक्ष्‍य में इसकी समीक्षा की जाए, जेनरेशन गैप का तत्‍व इसमें प्रधान तत्‍व नहीं है, सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on April 30, 2013 at 2:01pm

आप सबका हार्दिक आभार

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