!!! हे मां !!!
मां अर्थात् गुरू !
गुः - गुप अंधेरा, गहन तिमिर।
रूः - प्रकाशमय, अतिशय उजियारा।
अर्थात् तमसो मा जोतिर्गमय!
अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित करने वाली
जननी! मां!
अनादि काल से
सब कुछ सहती आ रही है।
हां! प्रसव पीड़ा के सम
नवजात के जन्म सरीखा ही।
नरक में उलटे टंगे को
स्वर्ग में सीधे पैरों पर खड़ा करने तक,
अन्धकार-अज्ञान को
प्रकाशवान-ज्ञानमय '
बनाने के लिए उद्वेलित करती
निरन्तर अथक प्रयासरत है।
हां! यही जननी -
हमारी मां है!!!
के0पी0सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ0 रक्ताले सर जी, आपका आशीष पाकर मन खिल गया। आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार। सादर,
वाह! बहुत सुन्दर भाव बांधती सुन्दर रचना. बहुत खुबसूरत. सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय केवल प्रसाद जी.
आ0 अजय खरे जी, जी सर, आपके समर्थन और आशीष से मेरी रचना सार्थक हुई और मैं धन्य हुआ। आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार। सादर,
आ0 लड़ीवाला जी, जी सर, आपने बिलकुल सही कहा कि’माँ ही गुरु माँ ही पोषण कर्ता माँ ही दुखो की हर्ता।’ जी, हर मर्ज की दवा केवल मां ही है। आपके समर्थन और आशीष से मैं धन्य हुआ। आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार। सादर,
आ0 श्याम नारायण जी, आपके समर्थन और आशीष से मैं धन्य हुआ। आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार। सादर,
आ0 कुन्ती जी, मेरे मन में सदा से ही मां के प्रति ऐसा विश्वास है कि इस दुनियां में यदि मां न होती तो हम शायद इतना विकास नहीं कर पाते। आपके समर्थन और आशीष से मैं धन्य हुआ। आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार। सादर,
kewal ji maan ki mahima ka sundar daan badhai
बहुत् सच कहा है आपने भाव प्रधान रचना के लिए बधाई -
सब कुछ सहती उफ़ न करती प्रसव् पीड़ा भी सहती
अपने तन से दूध पिलाकर तन से बलवान बनाती
जन्म दे माँ ही प्रथम गुरु जीवन में उजियारा करती
माँ ही गुरु माँ ही पोषण कर्ता माँ ही दुखो की हर्ता
बहुत सुन्दर रचना ........बधाई
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..
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