बहरे हज़ज़ मुसम्मन सालिम
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
1222 1222 1222 1222
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हुआ पैदा जो अंधा वो खड़ा राहें दिखाता है।
फटी आवाजवाला रोज अब गाने सुनाता है।
सभी कहते अरे भाई, हमारा देश गाँधी का,
शिवाजी भी यहीं के हैं, नहीं क्यों याद आता है।
भरा होता तपा लोहा जहाँ के नौजवानों में,
शहर वो ही भला कैसे ठगा सा दीख जाता है।
जरा सी बात क्या कर दी वतन की लाज की खातिर,
जमाना कोसता मुझको, बड़ा जालिम बताता है।
मुझे तो प्यार है मेरे उसी प्राचीन भारत से,
जो वेदों की ऋचाएं पढ़के औरों को पढ़ाता है।
अदा माशूक की थोड़ी नहीं भाती कभी दिल को,
हमेशा लहलहाते खेतों का दर्शन सुहाता है।
बड़ा ही गर्व होता है सदा उस क्षण को "गौरव" जब,
तिरंगे को नमन करने विदेशी सिर झुकाता है।
Comment
स्वागत है आपका आदरणीया उषा तनेजा जी। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
आदरणीया सीमा जी, आपकी स्नेहपूर्ण प्रतिक्रियाओं से तो हरबार और अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। इसबार भी आपसे प्रोत्साहन पाकर मन गदगद हो गया। आपका हार्दिक आभार।
मुझे तो प्यार है मेरे उसी प्राचीन भारत से,
जो वेदों की ऋचाएं पढ़के औरों को पढ़ाता है।
बड़ा ही गर्व होता है सदा उस क्षण को "गौरव" जब,
तिरंगे को नमन करने विदेशी सिर झुकाता है। बहुत सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई....
बहुत ही सुन्दर भाई! आपकी कलम का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है।
'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती!'
आपको बहुत बहुत बधाई!
हुआ पैदा जो अंधा वो खड़ा राहें दिखाता है।
फटी आवाजवाला रोज अब गाने सुनाता है।
सभी कहते अरे भाई, हमारा देश गाँधी का,
शिवाजी भी यहीं के हैं, नहीं क्यों याद आता है।
वाह वा भाई जी,
क्या खूब सामयिक शेर हुए हैं
आज कल यहाँ यही हो रहा है
पड़ोसी मुल्क चढाई को तैयार है तो भारत उसको भी "अतिथि देवो भवः" भाव से देखता है
सटीक व्यंग्य ...
हार्दिक बधाई
ये देश है कैसा जहाँ अकबर महान कहलाता है
बधाई.
प्रिय कुमार जी
सस्नेह
आदरणीय गौरव जी सादर, सुन्दर गजल कही है. कुछ शेर तो कमाल है. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
आ0 अजीतेन्दु जी, अतिसुन्दर .."अदा माशूक की थोड़ी नहीं भाती कभी दिल को,
हमेशा लहलहाते खेतों का दर्शन सुहाता है।" भाई जी हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीय कुमार गौरव अजीतेन्दु जी,
बड़ा ही गर्व होता है सदा उस क्षण को "गौरव" जब,
तिरंगे को नमन करने विदेशी सिर झुकाता है।
वैसे तो पूरी ग़ज़ल दिल को छु लेने वाली है पर ,
देशभक्ति से परिपूर्ण 'शेर' है.
बधाई स्वीकारें.
सनातन छंद हों या ग़ज़ल हर विधा में माहिर है आपकी कलम ....हर शेर वाह के लायक मतले के सन्दर्भ में मैं सौरभ जी से सहमत हूँ ....प्रस्तुति के लिहाज़ से भले ही मतला कुछ ढीला हुआ पर कहन पर आपकी पकड़ पूरी ग़ज़ल में कही भी कम नहीं हुयी
मुझे तो प्यार है मेरे उसी प्राचीन भारत से,
जो वेदों की ऋचाएं पढ़के औरों को पढ़ाता है।....सच में प्यार और गर्व दोनों
अदा माशूक की थोड़ी नहीं भाती कभी दिल को,
हमेशा लहलहाते खेतों का दर्शन सुहाता है।.........बहुत खूब (पर दोनों बातें एक साथ भी तो हो सकती हैं :-) )
बड़ा ही गर्व होता है सदा उस क्षण को "गौरव" जब,
तिरंगे को नमन करने विदेशी सिर झुकाता है।...बहुत महसूस करके और दिल से लिखा है ये शेर आपने सहमत हूँ इस भाव से
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