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तू  मुझमें  बहती  रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं    उन्मादी   मूढ़वत,   रहा  ढूँढता  संग

सहज हुआ अद्वैत पल,  लहर  पाट  आबद्ध
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध

होंठ पुलक जब छू रहे,   रतनारे   दृग-कोर
उसको उससे ले गयी,  हाथ पकड़ कर भोर

अंग-अंग  मोती  सजल,  मेरे तन पुखराज
आभूषण बन  छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज

संयम त्यागा स्वार्थवश,  अब  दीखे  लाचार
उग्र  हुई  चेतावनी,  बूझ  नियति  व्यवहार

*******************************

--सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 1:48pm

आपके वैचारिक उन्नयन और अत्युच्च प्रयास को मेरा सादर नमन, आदरणीया प्राचीजी.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 27, 2013 at 12:04pm

 //समय-समय पर यह भी सूचित करती गयीं कि आज एक दोहा स्पष्ट हुआ.. आज दूसरा वाला खुला.. आदि-आदि.. गोया विंची के सूत्रों को वे डिकोड कर ही थीं. .. हा हा हा हा...//

आदरणीय आपने वो दो तीन दिन याद करा दिए जब दिन रात इस दोहावली पर ही चिंतन मनन चलता रहा था... सच कहा विंची के सूत्रों की डीकोडिंग सा ही था वो.... मेरे स्टडी टेबल पर सामने एक बड़ा वाईट बोर्ड है, जिस पर मैंने इन दोहों को लिख लिया था... और एक एक कर इन्हें सूत्रों की तरह ही सुलझाया था :))) और हर दोहा सुलझने पर जिस अपार हर्ष का अनुभव किया था, वह किसी ट्रॉफी से कम नहीं था :)))))

इस दोहावली के लिए आपको पुनः पुनः साधुवाद.

आ० वसुंधरा पाण्डेय जी का भी हार्दिक आभार मेरे समझे को मान देने के लिए.

Comment by Vasundhara pandey on August 27, 2013 at 11:48am

आदि-आदि.. गोया विंची के सूत्रों को वे डिकोड कर रही थीं. .. हा हा हा हा...,,,मुझे भी जोर की हंसी की तलब आई आपकी इस  पंक्ति को पढ़कर... 

बाकी तो  सब चलता है सर जी ,मन संशयों का डेरा है ...

प्राची जी की इस व्याख्या के लिए आपको बधाई और प्राची को बहुत बहुत धन्यवाद एक बार फिर से...

सादर !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 11:32am

आदरणीया वसुन्धरा जी, आपका इस प्रस्तुति पर हार्दिक स्वागत है.

प्रत्येक प्रस्तुत रचना की अपनी सत्ता होती है, आदरणीया. उस सत्ता को सभी पाठक अपने लिहाज और अपनी समझ से स्वीकारते या नकारते हैं. डॉ. प्राची इन दोहों के संदर्भ में मुझसे सापेक्ष विन्दु लेना चाहती थीं. हमने इशारा तो किया कि ये विशेषभावदशा के दोहे हैं और मैंने इंगितों और अस्फुटता में ही कहा, जो कहा, खुल कर नहीं कहा. उन्होंने न केवल मेरे कहे का सिरा पकड़ा बल्कि भावदशा की भूमि की  विशद व्याख्या भी कर डाली.

साथ ही, समय-समय पर यह भी सूचित करती गयीं कि आज एक दोहा स्पष्ट हुआ.. आज दूसरा वाला खुला.. आदि-आदि.. गोया विंची के सूत्रों को वे डिकोड कर ही थीं. .. हा हा हा हा...

यह अवश्य है, आदरणीया, कि इन दोहों को सतह से परखा जाय तो इनमें वही है, या उतना ही है जिसको आदरणीय लक्ष्मण प्रासद जी ने साझा किया है. लेकिन रचनाधर्म गहरे डूबने की मांग करता है उसे कितने पाठक स्वीकर करते हैं !

यही कारण है कि डॉ. प्राची जी को आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद की टिप्पणी बेतरीके खल गयी. और टिप्पणियों में ही एक संवाद बन गया. मैं दोनों सुधी जनों का हार्दिक सम्मान करता हूँ लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि हम एक पाठक के तौर पर उतना ही जानते और समझ पाते हैं जितनी हमारे पाठन की पृष्ठभूमि और वाचन के पूर्व की तैयारी होती है.

आपको प्रस्तुति रुचिकर लगी, इस हेतु सादर धन्यवाद और आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 27, 2013 at 11:19am

डॉ. नूतन, आपकी विशद टिप्पणी ने इतना अवश्य आश्वस्त किया है भाव-दशा की दुनिया इतनी अकेली या अप्रासंगिक नहीं हुई है जितना प्रचार किया जाता है.

साहित्य जन के लिए ही है. इसकी बात सभी करते हैं,  लेकिन उसी जन को सांस्कारिक करने का दायित्व भी साहित्य और साहित्यकार पर है, इससे क्यों बचना चाहते हैं ? आपने अपनी तथ्यात्मक बातों से मेरे निवेदन की सार्थकता को सम्मानित किया है इसके लिए सादर आभार.

Comment by Vasundhara pandey on August 27, 2013 at 7:57am

आदरणीय सौरभ सर जी...

क्या कहूँ...बस महसूस की जा सकती है इस रचना को....बिह्वल हूँ आपकी रचना के साथ प्राची जी की टिप्पड़ी पढ़कर...बहुत बधाई इस रचना के लिए और प्राची जी बहुत बहुत बधाई आपकी अद्भुत टिप्पड़ी के लिए...
सादर आभार...!!

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on August 23, 2013 at 6:03am

परम आदरणीय सौरभ जी| ये दोहें अपने मे मोती,  मनका  हीरा है ... और रहस्यवादी भी है ... जिसको पाठक अपनी वातावरण और अपने बौद्धिक स्वरुप के हिसाब से समझता है ... जैसा कि प्रेम इस स्थूल  शरीर से भी होता है,अपने आत्मीय जनों से, स्वजनों से  और बहुत ज्यादा प्रेम मोह का कारण  होता है और यही माया का स्वरुप है जिसके जाल मे  इसका अंत वही दुखो की घोर उत्त्पति करता है, .....वही हमारी आत्मा निरंतर परमात्मा से मिलन के लिए सतत चल रही है पर वह देह रुपी घट मे बंधी हुई है है ... किन्तु हम अपने अंदर जब निहित आत्मा मे परमात्मा का स्वरुप  की सच्चाई को समझ पाते है और देह के मोह से ऊपर हम परमात्मा के उस स्वरुप को प्रेम करने लगते है जो सपूर्ण ब्रह्मांड मे है .. चर अचर, प्राणी प्राणी, आकार निराकार  मे है  जो सबमे है जिसका अंश मुझमें  है- सोऽहं , तो इस सत्यता के साथ परमात्मा मे उत्तपन मोह उसकी प्राप्ति के मार्ग की ओर उन्मुख होना,और इस प्रेम से  निसंदेश हमें दुखों के मायाजाल मे रह कर भी मानसिक संताप ,पीड़ा  और विलाप  से दूर रहते है... हमारा आध्यात्म कहता है कि कर्तव्यों के प्रति सजग रहना और अपने कर्तव्यों की निष्ठां से पालन करना आराध्य की अराधना है और परमात्मा के मार्ग की और ले जाने वाले मार्ग का सहचर्य है .... आपके इन अनमोल दोहों को मैं यू देखती हूँ कि जैसे इस संसार मे भटकते हुए प्राणी को आत्मअनुभूति होती है .. उसके अंदर सतत जो बह रही है वह आत्मा स्वरुप ब्रह्माण्ड का का रूप है जिसमे नभ धरा और दुनिया के सभी रंग है , अपने भीतर निहित परमानंद के स्वरुप को पहचान कर आत्मविभोर है ............ और इसी क्रम मे साधना के अद्वेतपल मे वह/ आत्मा, निराकार परमात्मा के स्वरुप देह मे रहते हुए देह से विलग परमात्मा से जा मिलती है और वह क्षण अतिरेक आनंद का होता है, रोम रोम पुलकित हो उठता है संसार के सहस्त्र आनंदों से ऊपर यह परमानंद की अवस्था देह मे मोती मोती सा जल देह में आनंद ही आन्नद भर देता है .. इस आनंद के साथ एक अकूत शांति मिलती है ... और उस क्षण  ओम् एक नाद नहीं एक मौन मधुर संगीत होता है... आनंद और शांति की ओर ले जाता हुआ ... . देह एक साधन मात्र है इन अनुभूतियों के लिए ...  और परमात्मा से प्राप्त ऊर्जा से आत्मा आनंदविभोर होती है ...... किन्तु इस परमानंद की प्राप्ति के लिए इन्द्रियों को बस मे रखने की जरूरत है... और जो मूढ़ अपने स्वार्थ में लिप्त अपने क्षणिक सांसारिक सुख के लिए इन्द्रियों को संयम मे नहीं रखता, आने वाला समय और नियति इसका तदनुरूप फल देती है , तब पछताना  पड़ता है..... इसलिए संयम के साथ नेक कार्य और कर्तव्यों का निर्वाह होना चाहिए ..मन मे सतत परमात्मा के प्रेम की अलख लिए........ आदरणीय सौरभ जी मैं चाहूंगी कि आप इन दोहों का अपने शब्दों मे भावार्थ करें   ......... आदरणीय प्राची जी की गुणी व्याख्या भी  बहुत प्रशंसनीय है और विचारणीय है............. एक बार की विस्तृत टिप्पणी  के डिलीट होने के बाद यह मैंने दुबारा थोरा संक्षेप मे लिखा है... अतः त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी  होउंगी 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 16, 2013 at 8:24pm

आदरणीय सौरभ जी ..देखने में कुछ और (श्रृंगार रस ) लिए गूढ़ कुछ और ...बहुत ही प्रभावी दोहे ..आदरणीया डॉ प्राची जी ने जो व्याख्या की उससे मन काफी ऊंची उड़ान तक गया ..वैसे एक ही दोहे और रचना का भाव रचयिता के मन में कुछ और व्याख्या कर्ता के मन कुछ और हो सकता है ये संभव है ...फिर भी यदि दोनों की सोच समझ और लिखने का प्रसंग मिलता है तो सोने में सुहागा ...आप डॉ प्राची जी से सहमत लगे तो अन्य पाठक गण को उस दिशा में सोच विचार करना चाहिए ही

भ्रमर ५

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 30, 2013 at 8:35pm

डॉ. प्राची जी, सादर | मेरी टिपण्णी के सम्बन्ध में आपके विचार -

     "हो सकता है रचयिता कवि के मन में अनन्य भाव हो" यह आप बिना समझे ही गलत लिख गए है... इस तरह की अटकलें लगाना अन्य पाठकों को भी भ्रमित कर सकता है..आपसे निवेदन है कि आप निम्न टिप्पणियों को पुनः संयत भाव से देखें और उस पर विचार करें." 

अगर ऐसा लगता है तो टिपण्णी को हटा देता हूँ | सादर 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 30, 2013 at 2:16pm

आदरणीय लक्ष्मण जी ,

कृपया संयत रह कर अपनी टिप्पणी को पुनः पढ़ें 

और मेरा भी प्रत्युत्तर देखें ...

यहाँ बात किसी भी तरह सम्मान या अपमान की हो ही नहीं रही है...न ही व्याख्या या दोहों में से किसी के श्रेष्ठ होने न होने की हो रही है..

यहाँ बात सिर्फ इतनी है कि "हो सकता है रचयिता कवि के मन में अनन्य भाव हो" यह आप बिना समझे ही गलत लिख गए है... इस तरह की अटकलें लगाना अन्य पाठकों को भी भ्रमित कर सकता है..

आपसे निवेदन है कि आप निम्न टिप्पणियों को पुनः संयत भाव से देखें और उस पर विचार करें.

सादर.

कृपया ध्यान दे...

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