इक औरत सी तन्हाई को
जब यादें कंधा देती हैं
दीर्घ श्वांस की
चंड मथानी
मथ जाती
देह-दलानों को
टूटे प्याले
रोज पूछते
कम-ज्यादा
मयखानों को
गलते हैं हिमखण्ड कई पर
धारा कहां निकलती है
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को
कैसे पाउं मंजिल ही जब
पल-पल जगह बदलती है
कीर्ण आस भी
चली रसातल
भुवन-भार दे
तानों को
पीत-पर्व के
तिरते बादल
करते चूर
निशानों को
होता मैं दाधीच अस्थियां
लेकिन सहज पिघलती हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी, आपके इंगितार्थ को समझने में मैं अक्षम रहा, कृपया थोड़ा समय देकर अनुगृहीत करें, सादर
आप सबका सादर आभार । आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाएं मुझे हमेशा प्रोत्साहित करती रहेंगी, सादर
आदरणीय राजेश झा जी,
आपका नवगीत जहाँ एक ओर साथ बहने का न्यौता देता दिख रहा है तो साथ बह रहे कई कारण हठात् रोक भी रहे हैं.
रचनाकर्म में आंचलिक भाषा के शब्दों का लालित्य मनोहारी होता है, इसे मैं खूब समझता हूँ. लेकिन प्रयुक्त शब्दों की अक्षरी में सायास परिवर्तन सहमा देता है कि कहीं यह उदाहरण और फिर एक परिपाटी न बन जाये.
सादर
वाह बहुत ही सुन्दर भाव से ओतप्रोत नवगीत आदरणीय राजेश भाई जी क्या कहने. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बढ़िया नवगीत रचा आदरणीय राजेश जी !
हार्दिक बधाइयाँ !!
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को
कैसे पाउं मंजिल ही जब
पल-पल जगह बदलती है nih.shabdh ...... wah wah wah
बहुत ही मार्मिक और पीर भरा नवगीत,
हार्दिक बधाई लीजिये!!
नि:शब्द सुलगती
रात पसरती
उष्ण रोध दे
प्राणों को
कौन रिफूगर
टांक सकेगा
इन चिथड़े
अरमानों को
आ0 राजेश भाई जी,
‘कीर्ण आस भी
चली रसातल
भुवन.भार दे
तानों को‘...बहुत खूब! सुन्दर अभिव्यक्ति। वास्तव में नारी की पीड़ा का अन्त रसातल से भी अतल तल में है, जिसे केवल नारी ही सहन कर सकती है। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
कल्पना दी, आपका आशीष मिला मैं धन्य हो गया । आपकी प्रेरणा से आगे बढ़ने का सतत प्रयास करता रहूंगा, सादर
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