-एक दुधमुँहा प्रयास-
बहर -ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
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पाँव कीचड़ से सने हैं और मंज़िल दूर है।
शाम के साए घने हैं और मंज़िल दूर है॥
तुम मिलोगे फिर कहीं इस बात के इम्कान पे,
फास्ले सब रौंदने हैं और मंज़िल दूर है॥
कौन हो मुश्किलकुशा अब कौन चारागर बने,
घाव ख़ुद ही ढाँपने हैं और मंज़िल दूर है॥
कल बिछौना रात का सौगात भारी दे गया,
अब उजाले सामने हैं और मंज़िल दूर है॥
धड़कनें भी मापनी हैं थामनी कंदील भी,
रास्ते फिर बाँचने हैं और मंज़िल दूर है॥
क्या सफ़र का हौंसला फिर क़ातिलों के गाँव में,
आज तम्बू तानने हैं और मंज़िल दूर है॥
नींद के माहौल में क्यों बोझ पलकों पर नहीं,
दीप सारे अनमने हैं और मंज़िल दूर है॥
इन मुसलसल भटकनों में बदहवासी का समां,
प्राण भी अब झोंकने हैं और मंज़िल दूर है॥
संग छोड़ेंगी 'रवी' क्यों ज़िल्लतें क्यों क़िल्लतें,
अब हक़ीक़त सामने है और मंज़िल दूर है॥
मौलिक व अप्रकाशित।
Comment
भाई आपके दुधमुँहें प्रयास ने मन मोह लिया. बहुत बहुत बधाई लें.. .
मक्ता के उला-ए-मिसरे को एक बार फिर से देख लें. रवि के वि पर भार दे कर उसे गुरु बनाना उचित नहीं. उसी मिसरे में ऐसी गलती एक और बार हुई है.
शुभेच्छाएँ.
आदरणीय रवि जी , सुंदर गजल ....दाद कुबूल कीजिये
वाह वाह बहुत सुंदर है गज़ल,,
पाँव कीचड़ से सने हैं और मंज़िल दूर है।
शाम के साए घने हैं और मंज़िल दूर है॥,,,, क्या कहने, दमदार शुरुआत
धड़कनें भी मापनी हैं थामनी कंदील भी,
रास्ते फिर बाँचने हैं और मंज़िल दूर है॥,,
बहुत खूब अशआर रचे आपने, बधाई लीजिये!!
नींद के माहौल में क्यों बोझ पलकों पर नहीं,
दीप सारे अनमने हैं और मंज़िल दूर है॥
वाह वा भाई क्या कहने ...
शानदार
इस सफल प्रयास के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें
हाँ सम्भालनी (२२१२) का शुद्ध उच्चारण सँभालनी (१२१२) होता है इसलिए इस मिसरे को सही करना होगा
बाकी तो सब वाह वा है ..
behtareen ghazal ke liye badhayee sweekarein ..sadar
भाई जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल हुई है सभी अशआर बेहद सुन्दर बन पड़े हैं, निम्नांकित अशआरों हेतु विशेषतौर पर बधाई स्वीकारें.
कल बिछौना रात का सौगात भारी दे गया,
अब उजाले सामने हैं और मंज़िल दूर है॥ वाह वाह
इन मुसलसल भटकनों में बदहवासी का समां,
प्राण भी अब झोंकने हैं और मंज़िल दूर है॥ बेहतरीन लाजवाब
संग छोड़ेंगी 'रवि' ये ज़िल्लतें न क़िल्लतें,
अब हक़ीक़त सामने है और मंज़िल दूर है॥ बेहद सुन्दर
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