1.धार तू,मझधार तू,सफ़र तू ही,राह तू,
घाव तू,उपचार तू,तीर भी,शमशीर भी।
जाने कितने वेश है,दर्द कितने शेष हैं,
गा चुके दरवेश हैं,संत ,मुर्शिद,पीर भी।
ध्वंस किन्तु सृजन भी,भीड़ तू ही,विजन भी,
छंद है स्वच्छन्द किन्तु,गिरह भी,ज़ंजीर भी।
भाग्य से जिसको मिला,उसे भी रहता गिला,
पा तुझे बौरा गए,हाय,आलमगीर भी॥
2.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों में पले,कुछ नवगीत बने।
पथ भूले,पगलाए,जग से विलग हुए,
पा कर तुझको हाय! हम अविनीत बने।
परिमल कैसे छूटे,आराधन कैसे टूटे,
जब तुम सा मायावी,मेरा मनमीत बने॥
मौलिक व अप्रकाशित।
Comment
भाई रवि प्रकाश जी, प्रयास हेतु धन्यवाद. अच्छा प्रयास हुआ है.
कवित्त यानि घनाक्षरी में सदा एक तथ्य याद रखियेगा कि यह वर्णिक छंद होता है और प्रयुक्त शब्दों के अक्षरों को लघु गुरु आदि के कुछ नहीं बताता. यानि सुगढ शब्द संयोजन का दायित्व रचनाकार पर ही होता है. यदि शब्दों का सुरुचिपूर्ण संयोजन न हुआ तो वाचन आनन्द नहीं कष्टप्रद होजाता है.
शब्द संयोजन में भी सम विषम विषम या विषम सम विषम के संयोजन से बचना चाहिये.
इस हिसाब से अपनी प्रस्तुति को देखिये.
शुभेच्छाएँ
ravi jee aapkee rachna mujhe behad pasand aayee..chuninda khoobsurat alfaajon roopee pushp ke is guldaste ke liye hardik badhaaayee
.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों में पले,कुछ नवगीत बने।........कविता में ये पंक्तियां बहुत खुबसुरत हैं
आदरणीय रवि जी, रचना पर हार्दिक बधाई
पथ भूले,पगलाए,जग से विलग हुए,
पा कर तुझको हाय! हम अविनीत बने anupam bhavabhiyakti. Naman aapki lekhni ko. Badhaiyaa
भाई रवि प्रकाश जी आपकी कविता के भाव बेहद सुन्दर होते हैं पढ़कर आनंद आता है, इसमें तनिक जल्दबाजी प्रतीत हो रही है. खैर प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें.
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
bahut hi sunadar , badhai , adarniy .
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