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मत्तगयंद सवैये - (रवि प्रकाश)

प्रथम प्रयास
- - - - - - - - -
1. बंजर हो धरती कितनी पर ये मन उर्वर देश वही है।
शूल गड़े दुखते तन में नित कातरता पर लेश नहीं है।
कौन मुझे समझे,परखे,उलझा अपना चिर वेश वही है।
कुंठित हो कर भी मुझमें कुछ धार अभी तक शेष कहीं है॥

2.

सादर है अधिकार तुम्हें तुम रूप-सुधा अविराम लुटाना।
तारक,हीरक या मणि-कांचन-मंडित जीवन पे इतराना।
यौवन की चिनगी दिखला कर प्रेम-हुताशन भी सुलगाना।
प्यास बुझे न नदी-जल से जब सागर के तट गागर लाना॥


3.

मौन अभीष्ट नहीं मुझको सुख-गीत प्रिये,पर गा न सकूँगा।
कल्पित नंदन-कानन में मधु-वासित कुंज सजा न सकूँगा।
गोपन इंगित में दृग के तन को,मन को उलझा न सकूँगा।
मैं दुख की नगरी रहता सुन,प्रेम-गली अब आ न सकूँगा॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment

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Comment by Ravi Prakash on August 11, 2013 at 3:13pm
शुक्रिया सौरभ जी।।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 2:42pm

बहुत बहुत बधाई.. और अभी इतना ही.  :-)))

मन मुग्ध किया है आपने, भाई..!!!

हाँ, तीसरी छंद-रचना के लिए विशेष बधाई. 

Comment by vijay nikore on August 7, 2013 at 10:43am

आदरणीय रवि जी:

 

सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Ravi Prakash on August 5, 2013 at 10:50am
सराहना हेतु धन्यवाद।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 5, 2013 at 5:21am

बहुत ही ओजपूर्ण रचना!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2013 at 7:48pm

आदरणीय रवि प्रकाश जी अति सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारिये...

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 4, 2013 at 7:36pm

बहुत सुन्दर मन मुग्ध करता मत्त्गंद सवैया | हार्दिक बधाई श्री रवि प्रकाश जी, वाह !

Comment by MAHIMA SHREE on August 4, 2013 at 2:31pm

बंजर हो धरती कितनी पर ये मन उर्वर देश वही है।
शूल गड़े दुखते तन में नित कातरता पर लेश नहीं है।
कौन मुझे समझे,परखे,उलझा अपना चिर वेश वही है।
कुंठित हो कर भी मुझमें कुछ धार अभी तक शेष कहीं है॥.वाह बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आदरणीय रवि प्रकाश जी ..बधाई आपको

Comment by Ravi Prakash on August 2, 2013 at 9:11pm
आपकी टिप्पणी से मैं बहुत उत्साहित हुआ हूँ।मार्गदर्शन करते रहें।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 2, 2013 at 7:20pm
भाई रविप्रकाश जी!
मन हर्षातिरेक से आप्लावित है। आनन्द ही आनन्द। वाह
इसका कारण है-
हमारी पीढ़ी के अधिकतर कवि- भाई कविता को हृदय की अभिव्यक्ति मानकर छांदसिक रचनाओँ के गणना जाल से मुक्ति पाने हेतु इनसे कन्नी काटते हैं, ऐसी पीढ़ी में आपके हाथ छंद- रचना की प्रज्वलित मशाल देखकर हृदय में आनन्द उत्पन्न होना सहज, स्वाभाविक है।
इस सवैया के लिये आपको अतिरिक्त बधाई-
//मौन अभीष्ट नहीं मुझको सुख-गीत प्रिये,पर गा न
सकूँगा।
कल्पित नंदन-कानन में मधु-वासित कुंज सजा न सकूँगा।
गोपन इंगित में दृग के तन को,मन को उलझा न सकूँगा।
मैं दुख की नगरी रहता सुन,प्रेम-गली अब आ न सकूँगा॥//

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