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इसी रास्ते से गुजरते रहे हम

दुआ जानते थे सो करते रहे हम

 

अब आये कभी गम तो फिर देख लेंगे   

यही सोच कर बस संवरते  रहे हम

 

उठाते  बिठाते जगाते रहे है

मुकद्दर को झोली में भरते रहे हम

 

कोई है जो अन्दर, यही देखता है

कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम

 

समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है

‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते  रहे हम

 

मौलिक और अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 10:43pm

कहन का कुछ अलहदा अंदाज़. बधाई कुबूल करें डॉक्टर साहब.

Comment by hemant sharma on August 7, 2013 at 9:43pm

बहुत सुन्दर गजल   बधाई ...

Comment by राज़ नवादवी on August 7, 2013 at 7:53pm

कोई है जो अन्दर, यही देखता है

कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम

 

समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है

‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते  रहे हम

- आदरणीय डॉक्टर साहेब, ये दो अशआर ख़ास तुअर पे अच्छे लगे! इरशाद! 

-

Comment by विजय मिश्र on August 7, 2013 at 12:31pm
अपनी नैतिकता के प्रति निष्ठा है जिनमें ,उन्हें इसीप्रकार सतत सतर्क रहना होता है और कुछ है अंदर ,जिन्हें भुगतना भी होता है . सुंदर रचना केलिए हार्दिक बधाई .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on August 6, 2013 at 10:52pm

आदरणीय ललित कुमार सिंह जी, बढ़िया गज़ल के लिए बधाई.

अब आये कभी गम तो फिर देख लेंगे   

यही सोच कर बस संवरते  रहे हम

इस अश'आर पर खासतौर से दाद कबूल कीजिए...............वाह !!!!!!!!!!!!!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 6, 2013 at 9:00pm

आदरणीय डा ० साहाब खोबसूरत ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कबूलिये..मुन्दर्ज़ा अशआर बहुत पसंद आये

कोई है जो अन्दर, यही देखता है

कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम

 

समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है

‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते  रहे हम

यह शेर मुझे समझ में नहीं आया..आप क्या कहना चाहते हैं|

उठाते  बिठाते जगाते रहे है

मुकद्दर को झोली में भरते रहे हम

Comment by Shyam Narain Verma on August 6, 2013 at 4:36pm
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 6, 2013 at 12:12pm

आदरणीय डा. ललित जी,

सुंदर रचना पर, हार्दिक बधाई

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