इसी रास्ते से गुजरते रहे हम
दुआ जानते थे सो करते रहे हम
अब आये कभी गम तो फिर देख लेंगे
यही सोच कर बस संवरते रहे हम
उठाते बिठाते जगाते रहे है
मुकद्दर को झोली में भरते रहे हम
कोई है जो अन्दर, यही देखता है
कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम
समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है
‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते रहे हम
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
कहन का कुछ अलहदा अंदाज़. बधाई कुबूल करें डॉक्टर साहब.
बहुत सुन्दर गजल बधाई ...
कोई है जो अन्दर, यही देखता है
कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम
समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है
‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते रहे हम
- आदरणीय डॉक्टर साहेब, ये दो अशआर ख़ास तुअर पे अच्छे लगे! इरशाद!
-
आदरणीय ललित कुमार सिंह जी, बढ़िया गज़ल के लिए बधाई.
अब आये कभी गम तो फिर देख लेंगे
यही सोच कर बस संवरते रहे हम
इस अश'आर पर खासतौर से दाद कबूल कीजिए...............वाह !!!!!!!!!!!!!!
आदरणीय डा ० साहाब खोबसूरत ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कबूलिये..मुन्दर्ज़ा अशआर बहुत पसंद आये
कोई है जो अन्दर, यही देखता है
कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम
समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है
‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते रहे हम
यह शेर मुझे समझ में नहीं आया..आप क्या कहना चाहते हैं|
उठाते बिठाते जगाते रहे है
मुकद्दर को झोली में भरते रहे हम
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
आदरणीय डा. ललित जी,
सुंदर रचना पर, हार्दिक बधाई
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