ग़ज़ल -
किसी ने यूँ छुआ सा ,
मुझे कुछ कुछ हुआ सा |
मैं हर शब् हारता हूँ ,
ये जीवन है जुआ सा |
कसावट का भरम था ,
नरम थी वो रुआ सा |
नज़र खामोश उसकी ,
असर उसका दुआ सा |
कहीं कुछ टीसता है ,
कि धंसता है सुआ सा |
मैं हल खींचूँ अकेले ,
ले काँधे पर जुआ सा |
मधुर सी चांदनी है ,
मिला महुआ चुआ सा |
ये माँ का याद आना ,
लगे मीठा पुआ सा |
-अभिनव अरुण
{पुरानी डायरी से १८०८२०१३}
* सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित - अरुण
Comment
नज़र खामोश उसकी ,
असर उसका दुआ सा |...........वाह! यह जानलेवा शेर है
आदरणीय अभिनव अरुण जी , उम्दा गजल पर दाद कुबूल कीजियेगा
बेहद खूबसूरत गजल हुयी है
बधाई आदरणीय अभिनव अरुण जी!
छोटी बह्र में बहुत ही प्रभावी गज़ल हुई है आ० अभिनव अरुण जी
बहुत बहुत बधाई
शुक्रिया श्री विजय जी और श्री सुलभ जी मेरे उत्साह वर्धन का
मोहतरम जनाब राज़ साहिब शुक्रिया और सलाह सर आँखों पर डायरी में ठीक कर रहा हूँ |
आदरणीय श्री गिरिराज जी बहुत आभार आदरणीय |
bahut sunder
बहुत खूब. 'नरम थी वो रुआ सा' की जगह 'नरम था वो रुआ सा' ज़्यादा संगत होगा. वैसे भी उर्दू साहित्य में प्रेमिका को पुल्लिंग में ही एड्रेस करते हैं.
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