हे देवपुरुष !
हे ब्रह्मस्वरूप !
कहती हूँ तुम्हें - श्रीकृष्ण !
पर
माधव, मैं -
वंशी धुन सम्मोहित
प्रेम साख्य अठखेलियों की
परिकल्पना में रास स्वप्न संजोती
तुम्हारी चिर सखि शक्ति राधिका नहीं !
और माधव, मैं -
आत्मिक आलौकिक
प्रेमाधीन, सुधि हारी
कर्म बन्ध विरक्ता, जग त्यक्ता,
तुममें लीन तुम्हारी भाव-परिणिता मीरां भी नहीं !
हे माधव ! मैं -
नतमस्तक, करबद्ध,
चरण-वंदिता, श्रद्धार्पिता
ज्ञान पिपासु, तिह मैत्रेयारूढ़,
जीवन समर में अकिंचन किंकर्तव्यविमूढ़...
लिए मन-वचन-कर्म अनुप्राणित समर्पण, पार्थ सम हूँ शरण !
हे कृष्ण !
बन्धमुक्त-आबद्ध समन्वय के सारे
सुलझाओ संशय...
गुरु सम सदिश् करो जीवन-रथ
छटे धुँधलका, ज्ञानालोकित हो जीवन, पाए मुक्तिपथ !
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आप की लेखनी को नमन करती हूँ आ० प्राची जी
गहन भाव दशा से निःसृत उत्कृष्ट काव्य रचना . भाषा से रचनाकार के भाव उच्च होते है जो यहाँ विद्यमान है . क्लिष्ट शब्द भी प्रवाह मे रुकावट नही बन रहे ...इस सर्वोत्तम सृजन के लिए हार्दिक बधाई आ. डा. प्राची जी !!
बहुत सुन्दर .... :) आदरणीया डॉ प्राची जी
आ0 प्राची मैम जी, सादर प्रणाम! वाह!... //जीवन समर में अकिंचन किंकर्तव्यविमूढ़...
लिए मन-वचन-कर्म अनुप्राणित समर्पण, पार्थ सम हूँ शरण !
// --------बहुत सुन्दर प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीया डोक्टर प्राची जी बहुत बहुत बधाई " मुक्तिपथ " आलोकित करने के लिये !
आदरणीय श्याम जी
यहाँ एक बात विशिष्ट रूप से अपसे, फिर सबसे, कहना चाहती हूँ कि सभी रचनाएँ सभी पाठकों के लिए नहीं होतीं. कुछ विशिष्ट कथ्य, शब्द, या तथ्य एक विशिष्ट समझ के बाद ही समझे जा सकते हैं.
उदाहरण के तौर पर यदि आपकी ही रचना 'एक स्वप्न कथा' की बात करें तो कथ्य व शब्दों की सहजता के बाद भी उसका तथ्य इतना जटिल है कि उसे सामान्य पाठक जन तो समझ भी नहीं सकते. यदि आपकी रचना पर चार दिन बाद आदरणीय सौरभ जी उसकी व्याख्या ना करते तो शायद मुझ सम कई-कई पाठकों को उसका ओर-छोर भी समझ नहीं आ पाता..
एक और उदाहरण लें तो आदरणीय सौरभ जी द्वारा रचित 'पाँच दोहे' तो कई कई बार शब्दों की बेहद सरलता के बाद भी मुझे समझ नहीं आये.. उनका तथ्य इतना गहन था कि तीन दिन चिंतन-मनन के बाद उनका गूढ़ रहस्य समझ में आया, जिसे मैंने विस्तार पूर्वक साझा किया... और निश्चय ही उन दोहों के वास्तविक भावार्थ को कई पाठक मेरे उस भावार्थ के आलोक में ही समझ सके..
उसी तरह शब्दों का प्रयोग या कथ्य प्रारूप भी होता है, जो कई-कई रचनाकारों के लिए बहुत सहज या सामान्य होता है, तो कइयों के लिए अत्यंत क्लिष्ट. ऐसे में सभी सुधी पाठक एवं रचनाकार अपने निजी शब्दभंडार को टटोलते हुए, फिर नया-नया सीखते हुए, अनुभव को पगाते हुए आगे बढते हैं.
यह सीखने-सिखाने का ही मंच है, हम सब समवेत सीखें यही आशय है...
उम्मीद है, अपने कहे को स्पष्ट कर पाई, और आपके संशयों का निराकरण भी.
इस रचना में जो शब्द आपको क्लिष्ट लगे उनका अर्थ दे रही हूँ :
तिह मैत्रेयारूढ़,= तुम्हारी मित्रता के विश्वास पर
बन्धमुक्त-आबद्ध समन्वय= जीवन में जीते हैं तो कई अनुबंध होते हैं और लक्ष्य बंधमुक्ति का है.. इसमें कैसे सामजस्य हो यह ज्ञान
उम्मीद है अब रचना आपको समझ आ सकेगी
शुभेच्छाएँ
तुम्हारी चिर सखि शक्ति राधिका नहीं !
कर्म बन्ध विरक्ता, जग त्यक्ता,
तुममे लीन तुम्हारी भाव-परिणिता मीरा भी नहीं !
जीवन समर में अकिंचन किंकर्तव्यविमूढ़...
लिए मन-वचन-कर्म अनुप्रणित समर्पण, पार्थ सम हूँ शरण !
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डॉ.प्राची जी ,
//क्लिष्ट शब्दावली का मोह, भाव के सम्प्रेष्ण में अवरोध खड़े कर रहा //
जो शब्द एक पाठक या रचनाकार के लिए क्लिष्ट होते हैं वही दूसरे के लिए बहुत सहज और सामान्य हो सकते हैं... ये अपनी अपनी पाठन विविधताओं व लेखन शैली पर ही निर्भर करता है...आदरणीय श्याम जी
फिर भी रचना के भाव आप तक पहुँचे :))))
धन्यवाद !
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
इस रचना की भावदशा पिछले काफी अरसे से चिंतन मनन की पृष्ठभूमि में थी पर शब्द्प्रारूप में आज ही ढल सकी..
यह भाव निस्सृत अभिव्यक्ति आपको पसंद आई और आपकी सराहना मिली ..बहुत बहुत आभार.
सादर.
रचना का भाव प्रारूप आपको पसंद आ सका , यह जान संतोष हुआ है..
हार्दिक धन्यवाद आ० अन्नपूर्णा बाजपेई जी
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