प्रेम में मगन मैं, होने लगा हूँ
जग से नाता तोड़ चला हूँ,मैं
जग से नाता तोड़ चला हूँ
प्रेम में मगन मैं, होने लगा हूँ
उनसे मिलन की, आस लिए
अंधरों बड़ी प्यास, लिए
दर बदर मैं, भटक रहा हूँ, हाँ
दर बदर मैं, भटक रहा हूँ
प्रेम में मगन मैं, होने लगा हूँ
आएगी कब वह, रात सुहानी
होंगी जब वो,मेरी दीवानी
रात और दिन यही, सोच रहा हूँ, मैं
रात और दिन यही, सोच रहा हूँ
प्रेम में मगन मैं, होने लगा हूँ
हर पल उनकी याद सताए
नीदों में मुंझको,वो जगाये
स्वप्न उन्ही का, मैं देख रहा हूँ, हाँ
स्वप्न उन्ही का, मैं देख रहा हूँ
प्रेम में मगन मैं, होने लगा हूँ
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सुन्दर प्रयास है..
लेकिन कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तर पर बिलकुल सतही सा है. और सदस्यों की भी रचनाएं पढ़िए....सतत पाठन ही अभिव्यक्ति में सुधार का आधार बनता है.
शुभेच्छाएं
आदरणीय देवेन्द्र भाई...... पहले तो गीत के लिए बधाई स्वीकारें....... लेकिन लिखने के प्रति थोड़ा सा और गंभीर हों..... मुझे लगता है शायद आप "अं" के प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील हैं.... जैसे
प्रथम बंद में 'अंधरों' ------ सही शब्द 'अधरों',
द्वितीय बंद में 'होंगी' -------- यहाँ पर 'होगी' करने से गेयता ठीक हो जाएगी....
तृतीय बंद में 'मुंझको' -------- सही शब्द 'मुझको'
अच्छा प्रयास है! भाई जी गीत के शिल्प पर ध्यान दें. इस मंच पर छंद विधान समूह में लेख हैं. उन्हें देखें.
सादर!
आदरणीय दीपेन्द्र जी प्रयास अच्छा है, गीत आपसे श्रम और कसावट की मांग कर रहा है शिल्प और कथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है. प्रयासरत रहें अधिक से अधिक अन्य मित्रों की भी रचनाएँ पढ़ें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा. इस प्रयास पर बधाई स्वीकारें
अंधरों बड़ी प्यास, लिए ??? इस पंक्ति अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा है (अंधरों या अधरों)
आदरणीय देवेन्द्र जी ..प्रेम सबको मगन कर ही देता है ..दशहरे पर हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
बहुत सुंदर भावनात्मक गीत प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारे आदरणीय देवेन्द्र भाई
आदरणीय देवेन्द्र भाई , गीत के भावों के लिये आपको बधाई !!! हर पंक्ति मे मात्रा अलग अलग है इसलिये गेयता बाधित लग रही है !!!
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