१२२२ १२२२
बड़ी बातें मियां छोड़ों
हमारा दिल न यूं तोड़ों
न हिन्दू है न वो मुस्लिम
वो हिंदी है उसे जोड़ो
छलकती हैं जहाँ आँखें
मुझे रिन्दों वहां छोड़ों
लगें दिलकश जो शाखों पे
हसीं गुल वो नहीं तोड़ों
मिलेगी वक़्त पर कुर्सी
मियाँ कुर्सी को मत दौड़ों
लुटी कलियाँ चमन की हैं
दरिंदों को नहीं छोड़ों
बचा कुर्सी वतन बेंचा
शरारत ये जरा छोड़ों
जहर है अब हवाओं में
हवा का आज रुख मोड़ों
मौलिक व अप्रकाशित
डॉ आशुतोष मिश्र
Comment
भाव अच्छे हैं लेकिन शब्द लेखन में कुछ कमी सी लग रही है आ0 डॉ. आशुतोष जी....
शब्द संयोजन और भाव अच्छे है | इस हेतु बधाई
आ0 आशुतोष मिश्रा जी छोटी बह्र मे बहुत ही बढ़िया गजल हुई है बधाई आपको ।
आदरणीय वीनस जी ...आपकी प्रतिक्रिया मेरे ग़ज़ल लिखने के मेरे प्रयास को सतत ही एक नयी दिशा देती हैं ..आप सभी से तमाम पहलुओं पर आपनी चूक का अहसास हुआ .....हमारे अच्छे प्रयास पर आप की हौसला अफजाई मिली ..जैसे ही लापरवाही हुई आपने सजग कर दिया ..सतत सुधार की अपनी चेष्टा के साथ नयी नयी कमियां भी उजागर होती हैं और उन पर आपकी राय फिर एक नयी दिशा देती है ...आपको हार्दिक धन्यवाद के साथ ..सादर
आदरनीय
अगर ये ग़ज़ल है तो गज़लियत क्यों नदारद है ... मुझे ये ग़ज़ल कम तुकबंदी जियादा लगी
मज़ा तो तब है जब एक शेर में कई पहलू मौजूद हों ,,, हर बार पढ़ा जाए तो नया अर्थ प्रस्फुटित हो ... आपकी यह रचना ऐसा करने में समर्थ नहीं है
साथ ही तोडो छोडो के साथ दौड़ो को भी आपने भर दिया है
आदरणीय शिज्जू जी ..काफिया का दुहराव न हो मैं हमेशा ध्यान रखता हूँ ....आप सभी सेजब भी कुछ नया सीखने को मिलता है तो अगली ग़ज़ल में ध्यान उसी बिंदु पर ज्यादा केन्द्रित हो जाता है. ..काफिया देखता हूँ तो तमाम दोषों से ध्यान हट जाता है ..दोष देखता हूँ तो कुछ ऐसे मूलभूत बिन्दुओं से ध्यान बिकेंद्रिकृत हो जाता है ..आप सभी बिद्वत जन मेरे ग़ज़ल की राह पर मेरे चलना सीखने के गवाह बने रहें और मेरे लडखडाते क़दमों को स्थिरता हेतु हौसला प्रदान करते रहें ..अंतस की इन्ही भावनाओं के और सादर नमन के साथ
आदरणीय सौरभ सर ..सर ये अनुस्वार daudon, chhodon टाइप करने की गलती से हो गया ..टाइप करते समय मैं ध्यान नहीं दे पाया ..सर वाकई काफिया की पुनरावृत्ति से ग़ज़ल के लुत्फ़ में कमी आयी ....मैं लगातार कोशिस कर रहा हूँ की आप सभी से मुझे जो भी मार्गदर्शन मिल ता है उसका मैं अपने अगले प्रयास में ध्यान रहूँ..पर हर बार कुछ न कुछ गलती मुझसे हो ही जाती है ग़ज़ल में कमी आपके स्नेहिल मार्गदर्शन में सतत कम होती ही जायेगी
बस मेरी तो यही ख्वाइश है की आपका स्नेह मुझे यूं ही सतत मिलता रहे ..उसमे कभी कोई कमी न हो ...सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय बैद्य नाथ जी, गिरिराज जी , अभिनव जी , शकील जी आप सभी का हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया ...आप सभी को सादर धन्यवाद के साथ
आदरणीय डॉ आशुतोष जी छोटी बह्र पे कोशिश अच्छी है, मैं जनाब शकील साहब से सहमत हूँ, काफिया का दोहराव लुत्फ़ को कम किये दे रहा है, ग़ज़लों पर सतत प्रयास रचनाओं को बेहतर और बेहतर करेगा, शुभकामनाएं
छोड़ों तोड़ों दौड़ों मोड़ों.. .इन क्रियाओं में अनुस्वार क्यों लगा है . स्पष्ट नहीं हुआ आदरणीय
ले दे के कुछ ही काफ़ियाओं का कई दफ़े आना काफ़िया का अकाल माना जाता है.
वैसे कई लोग इस प्रस्तुति से बहुत प्रभावित दीख रहे हैं. मैं उनके विरुद्ध नहीं जाना चाहता. लेकिन फिर भी, मैं बहुत संतु्ष्ट नहीं हो पाया, सर.
सादर
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