सामने
द्वार के
तुम रंगोली भरो
मैं उजाले भरूँ
दीप ओड़े हुए.. .
क्या हुआ
शाम से
आज बिजली नहीं
दोपहर से लगे टैप बिसुखा इधर
सूख बरतन रहे हैं
न मांजे हुए
जान खाती दिवाली अलग से,
मगर --
पर्व तो पर्व है
आज कुछ हो अलग
आँज लें नैन
सपने सिकोड़े हुए... .
क्या हुआ
हम दुकानों के काबिल नहीं
भींच कर मुट्ठियाँ
क्या मिलेगा मगर !
मैं कहाँ कह रहा--
हम बहकने लगें ?
पर,
कभी तो जियें
ज़िन्दग़ी है अगर.. !
नेह रौशन करे
’मावसी साँझ को,
हम भरोसों भरें
भाव जोड़े हुए.. .
************************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
वाह वाह वाह हार्दिक बधाई बन्धु श्रेष्ठ वाह
सामने
द्वार के
तुम रंगोली भरो
मैं उजाले भरूँ
दीप ओड़े हुए.. ...
पढ़कर दिल गद गद हो गया ! पूरी रचना सुन्दर बन पड़ी है ..पठनीय और वन्दनीय भी ! नमन स्वीकारें आदरणीय...बहुत बहुत बधाई :)
आदरणीय सौरभ जी
शब्द दर शब्द इस नवगीत की ऊर्जस्वी स्पंदित प्रतिध्वनि अब तक गूँज रही है..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय
मुख्य पंक्तियाँ ही अपने साथ बाँध लेती हैं...
और बन्दों में जिस तरह से दैनिक जीवन के घरेलू झुंझुलाते पक्षों को शामिल किया गया है.. और उससे परे देखते हुए झट स्थाई खुशी पाने का मार्ग दिया गया है... यह तत्व ही नवगीत का प्राण है.
क्या हुआ
हम दुकानों के काबिल नहीं
भींच कर मुट्ठियाँ
क्या मिलेगा मगर !
मैं कहाँ कह रहा--
हम बहकने लगें ?
पर,
कभी तो जियें
ज़िन्दग़ी है अगर.. !........................वाह !
नेह रौशन करे
’मावसी साँझ को,
हम भरोसों भरें
भाव जोड़े हुए.. .
...इस बंद को तो हर पाठक, हर श्रोता अपने अपने संवेदन स्तर पर निश्चय ही जी ही जाएगा...
इस सुन्दर प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई
सादर!
पर,
कभी तो जियें
ज़िन्दग़ी है अगर.. !
नेह रौशन करे
आदरणीय, आपकी कलम से एक और सुंदर प्रस्तुति ताकि हम जिये, जीते रहें, बहुत ही सुंदर, सादर ।
आदरणीया वन्दनाजी, आपको प्रयास रुचिकर लगा मेरा रचना कर्म सार्थक हुआ.
टैप के बिसुखा जाने का सही अर्थ लगाया है आपने. टैप यानि नल से पानी की कोई उम्मीद नहीं की झल्लाहट उभरी है इस पंक्ति में.
सादर धन्यवाद.
भाई अतेन्द्र जी, हृदय से धन्यवाद.
आदरणीय सत्यनारायण जी, रचना प्रभावकारी लगी इस हेतु मैं हार्दिक रूप से धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ.
सादर
भाई विशाल जी, आपको रचना के भाव प्रभावकारी लगे यह मेरे लिए भी आनन्द की बात है.
हार्दिक धन्यवाद भाईजी.
आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, यह सही है कि आज की स्थितियाँ विकट हैं लेकिन जीना तो है न !
आपसे रचना के भावों को अनुमोदन मिला यह मेरे रचना प्रयास को मिला अनुमोदन है.
सादर धन्यवाद
भाई रामशिरोमणि जी, आपको मेरा प्रयास तार्किक लगा यह इस प्रस्तुति को मिला पठकीय अनुमोदन है.
बहुत-बहुत धन्यवाद.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online