रात पर जय प्राप्त कर जब जगमगाती है सुबह।
किस तरह हारा अँधेरा, कह सुनाती है सुबह।
त्याग बिस्तर, नित्य तत्पर, एक नव ऊर्जा लिए,
लुत्फ लेने भोर का, बागों बुलाती है सुबह।
कालिमा को काटकर, आह्वान करती सूर्य का,
बाद बढ़कर, कर्म-पथ पर, दिन बिताती है सुबह।
बन कभी तितली, कभी चिड़िया, चमन में डोलती,
लॉन हरियल पर विचरती, गुनगुनाती है सुबह।
फूल कलियाँ मुग्ध-मन, रहते सजग सत्कार को,
क्यारियों फुलवारियों को, खूब भाती है सुबह।
इस मधुर वेला में हम भी, क्यों न उठकर चल पड़ें,
मन उतारें रंग जो, हर दिन दिखाती है सुबह।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रमेश कुमार जी, आ॰ बृजेश जी, आ॰ अन्न पूर्णाजी, आ॰ गिरिराज जी, आ॰ नादिर खान जी, आ॰ बैद्यनाथ जी, आ॰ मोहिनीजी, आ॰ नीरज जी, रचना को स्नेह देने के लिए आप सबका हृदय से आभार।
वाह! बहुत सुन्दर! रचना ने मन के भीतर तक सुबह का एहसास करा दिया! आपको बहुत-बहुत बधाई इस खूबसूरत रचनाकर्म पर!
आ0 कल्पना दी बहुत सुंदर गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई ।
आदरणीय कल्पना जी , सुन्दर हिन्दी ग़ज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ॥
वाह क्या सुबह है, हिन्दी की बेहतरीन गजल
आदरणीया रामानीजी बहुत बहुत बधाई
वाह सुबह का कितना सुन्दर रूप स्थापित कर दिया आपने इस ग़ज़ल के माध्यम से .. बहुत सुन्दर ...
इस मधुर वेला में हम भी ...बहुत सुंदर वर्णन किया है सुबह का , कल्पना जी आपकी हर रचना खूबसूरत होती है |
बेहतरीन ग़ज़ल ! हिन्दीमय कर दिया हम सबको आपने ! हार्दिक बधाई स्वीकार करें !..
इस मधुर वेला में हम भी, क्यों न उठकर चल पड़ें,
मन उतारें रंग जो, हर दिन दिखाती है सुबह।........उत्तम !
सुंदर चित्रण आदरणीया कल्पना रामानी जी बहुत खूब ....
बेहतरीन अशआर ........
आदरणीया प्राची जी, कुंती जी, आदरणीय शरदिन्दु जी, प्रशंसात्मक शब्दों के लिए हार्दिक आभार
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