विश्व विख्यात शोध संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो० सुब्रह्मण्यम को रिटायरमेंट के बाद एकाकी जीवन जीते 15 साल हो चले थे. अनेक एवार्ड, शोध पत्र, सम्मान-पत्र, पुस्तकें यही कुछ उनकी जीवन भर की पूंजी थी. जब भी कोई शोध संस्थान किसी व्याख्यान के लिए आग्रह करता तो बहुत उत्साह से वैज्ञानिकों को दिशा निर्देशन देने के लिए अवश्य ही जाते थे.
ऐसे ही एक व्याख्यान में देश के कोने-कोने से आये चुनिन्दा युवा शोधार्थियों को संबोधित करते हुए व्याख्यान के बीच में अचानक एक दुर्लभ सी पुस्तक के बारे में पूछ बैठे.
पूरे हॉल में सन्नाटा पसर गया.............. न कोइ शोधार्थी, न कोई युवा वैज्ञानिक, न ही कोई वरिष्ठ कुछ कहने को तैयार, सब गर्दन झुकाए, नज़रें बचाते, जैसे कुर्सियों से चिपक गए.... प्रोफ़ेसर साहब भी अपने किये प्रश्न पर सकपकाने से लगे,
.....कि अचानक सुदूर प्रान्त से आये एक युवा शोधार्थी नें अपना हाथ उठाते हुए कहा “जी हाँ ! इसी संस्थान के पुस्तकालय में यह दुर्लभ पुस्तक तीन वोल्यूम्स में उपलब्ध है, और इसका सम्पादन आपने किया है आदरणीय सुब्रह्मण्यम जी ”.... तालियों की गड़गड़ाहट से वातावरण अगले पाँच मिनट तक गूँजता रहा...
सबको आश्चर्य था कि मात्र 15 मिनट के टी-ब्रेक में एक शोधार्थी कैसे जान सकता है एक नए संस्थान के पुस्तकालय के बारे में और वो भी पुस्तकों को उनके रचनाकर्ताओं के नाम व पहचान के साथ...
...और प्रोफ़ेसर सुब्रह्मण्यम के चेहरे पर उभरती सुकून की रेखाओं और मुस्कराहट के साथ ही उनके मन में ये विश्वास भी हो चला कि उनकी जीवन भर की मेहनत व्यर्थ नहीं गयी.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय प्राची जी,
बहुत सुन्दर भाव की कथा है.
कई भावों को एक साथ पिरोने के कारण कथा की पहली लाइन अपने कहन के साथ न्याय नहीं कर पा रही है. सुब्रह्मण्यम जी की विशिष्टता को, उनके सादे जीवन को और विमोह को और अच्छी तरह से बताया जा सकता था.इस बात पर सुधीजन भी अपने विचार देंगे. जबाब देने वाले शोधार्थी के सभा में देर से आने के सम्बन्ध में बताने से कथा पर ज्यादा प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पा रहा है.उसकी विशेषता को अलग तरीके से बताया जा सकता था.
सादर.
डॉ सुब्रेह्मण्यम जी का उद्देश्य सार्थक हो गया कि कोई तो उनके कार्य क्षेत्र को आगे बढ़ाएगा.सुंदर कथा.प्राची जी. सादर
सच! जीवन में त्याग और परिश्रम ही रंग लाता है, बहुत सार्थक सन्देश देती रचना बधाई स्वीकारें आदरणीया डा. प्राची जी
बहुत ही संदेशपरक कथा है ! जीवन का सरमाया, जब लगता है कि अभी भी हमारे साथ है ..हमारे पास है तो ख़ुशी होती ही है ! शोध और शोधार्थियों के बिम्ब के माध्यम से अच्छी व सार्थक रचना कही आपने ! बधाई आपको !
शोध का सच्चा अर्थ बताती रचना ...
बहुत सुन्दर लघुकथा .. बधाई आप को आदरणीया प्राची जी | सादर
आ0 प्राची जी सुंदर संदेश युक्त लघु कथा के लिए आपको बहुत बधाई ।
बहुत रोचक प्रस्तुति प्राची जी , पढ़कर एक दोहा याद आया ---वृक्ष कबहूँ न फल भके,नदी न संचय नीर ,परमारथ के कारणे, साधुन भया शरीर
यही तो एक सच्चे सद्चरित्र सद्ग्यानी की पहचान है .बहुत- बहुत आभार इस रोचक घटना को साझा करने के लिए
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