एक स्त्री का जब जन्म होता है तभी से उसके लालन पालन और संस्कारों में स्त्रीयोचित गुण डाले जाने लगते हैं | जैसे-जैसे वो बड़ी होती है उसके अन्दर वो गुण विकसित होने लगते है | प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग ये सभी भावनाएं वो किसी के लिए संजोने लगती है और यूँ ही मन ही मन किसी अनजाने अनदेखे राज कुमार के सपने देखने लगती है और उसी अनजाने से मन ही मन प्रेम करने लगती है | किशोरा अवस्था का प्रेम यौवन तक परिपक्व हो जाता है, तभी दस्तक होती है दिल पर और घर में राजकुमार के स्वागत की तैयारी होने लगती है | गाजे बाजे के साथ वो सपनों का राजकुमार आता है, उसे ब्याह कर ले जाता है जो वर्षों से उससे प्रेम कर रही थी, उसे ले कर अनेकों सपने बुन रही थी | उसे लगता है कि वो जहाँ जा रही हैं किसी स्वर्ग से कम नही, अनेकों सुख-सुविधाएँ बाँहें पसारे उसके स्वागत को खड़े हैं इसी झूठ को सच मान कर वो एक सुखद भविष्य की कामना करती हुई अपने स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है | कुछ दिन के दिखावे के बाद कड़वा सच आखिर सामने आ ही जाता है | सच कब तक छुपा रहता और सच जान कर स्त्री आसमान से जमीन पर आ जाती है उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं फिर भी वो राजकुमार से प्रेम करना नही छोड़ती | आँसुओं को आँचल में समेटती वो अपनी तरफ़ से प्रेम समर्पण और त्याग करती हुई आगे बढ़ती रहती है | पर आखिर कब तक ? शरीर की चोट तो सहन हो जाती है पर हृदय की चोट नही सही जाती | आत्मविश्वास को कोई कुचले सहन होता है पर आत्मसम्मान और चरित्र पर उंगुली उठाना सहन नही होता, वो भी अपने सबसे करीबी और प्रिय से | वर्षों से जो स्त्री अपने प्रिय के लम्बी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती है, हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे मत्था टेकती है, हर समय उसके लिए समर्पित रहती है, उसकी दुनिया सिर्फ और सिर्फ उसी तक होती है | एक लम्बी पारी बिताने के बाद भी उससे वो मन चाहा प्रेम नही मिलता है ना ही सम्मान तो वो बिखर जाती है हद तो तब होती है जब उसके चरित्र पर भी वही उंगुली उठती है जिससे वो खुद चोटिल हो कर भी पट्टी बांधती आई है | तब उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फिर उसका प्रेम नफरत में परिवर्तित होने लगता है, फिर भी उस रिश्ते को जीवन भर ढोती है वो, एक बोझ की तरह |
दूसरी तरफ़ क्या वो पुरुष भी उसे उतना ही प्रेम करता है ? जिसेके लिए एक स्त्री ने सब कुछ छोड़ के अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया | वो उसे जीवन भर भोगता रहा, प्रताड़ित करता रहा, अपमानित करता रहा और अपने प्रेम की दुहाई दे कर उसे हर बार वश में करता रहा | क्या एक चिटकी सिन्दूर उसकी मांग में भर देना और सिर्फ उतने के लिए ही उसके पूरे जीवन, उसकी आत्मा, सोच,उसकी रोम-रोम तक पर आधिकार कर लेना यही प्रेम है उसका ? क्या किसी का प्रेम जबरजस्ती या अधिकार से पाया जा सकता है ? क्या यही सब एक स्त्री एक पुरुष के साथ करे तो वो पुरुष ये रिश्ता निभा पायेगा या बोझ की तरह भी ढो पायेगा इस रिश्ते को ? क्या यही प्रेम है एक पुरुष का स्त्री से ? नही, प्रेम उपजता है हृदय की गहराई से और उसी के साथ अपने प्रिय के लिए त्याग और समर्पण भी उपजता है | सच्चा प्रेमी वही है जो अपने प्रिय की खुशियों के लिए समर्पित रहे ना कि सिर्फ छीनना जाने कुछ देना भी जाने | वही सच्चा प्रेम है जो निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे के प्रति किया जाए नही तो प्रेम का धागा एक बार टूट जाए तो लाख कोशिशो के बाद भी दुबारा नही जुड़ता उसमे गाँठ पड़ जाता है और वो गाँठ एक दिन रिश्तों का नासूर बन जाता है, फिर रिश्ते जिए नही जाते ढोए जाते हैं एक बोझ की तरह | शायद इसी लिए रहीम दास जी ने कहा है -
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय |
टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय ||
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय बृजेश जी
प्रेम न तो सिर्फ त्याग है, और न ही सिर्फ समर्पण! प्रेम निस्वार्थ होता है, उसमें अपेक्षा नहीं होती. उसकी पहली शर्त है, जो जैसा है, उसे वैसा ही, सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ स्वीकार करना.
मांग में सिन्दूर भर देना या लेना प्रेम का प्रतीक तो नहीं. दाम्पत्य जीवन में वास्तविक प्रेम कितना है, यह आंकलन का विषय है. अगर यह गिनती शुरू हो जाए कि मैंने तुम्हारे लिए इतना किया और बदले में तुमने क्या किया, तो वहाँ प्रेम कहाँ. प्रेम तो एक-दूसरे के लिए जीना, विश्वास करना सिखाता है
बहरहाल, इस सुन्दर आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीया प्राची जी आप के हर एक शब्द से मै सहमत हूँ | सच कहा है आप ने "प्रेम होता है विशाल ह्रदय रखते हुए, बिना किसी अपेक्षा के, हर हाल में किसी को जैसा वो है वैसा ही स्वीकार करना... वर्ना सिर्फ अपेक्षाएं, समझौते, सौदागरी आदि रह जाता है".... आप के इस स्नेह के लिए मै हृदय से आभारी हूँ, आगे भी ऐसे ही आप से स्नेह मिलता रहेगा इसी आशा के साथ पुन: बहुत बहुत आभार | सादर
आदरणीया मीना जी
बहुत संवेदनशीलता और बारीकी से आपने एक स्त्री के मन को झांका है और दाम्पत्य में उसके प्रतिपल तिरोहित होते जाते जीवन को व्यक्त किया है... प्रायः स्त्री को इन सभी बातों का सामना करना पड़ता है..ये बहुत ही शोचनीय है.. पितृसत्तात्मकता नें स्त्रियों को बहुत कमज़ोर किया है.. उनका आर्थिक रूप से पराश्रित होना उनकी उन्नति व् आत्मसम्मान के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है...
चिंता का विषय तो ये है कि जो स्त्री अपना सर्वस्व न्योच्छावर कर देती है उसके बलिदान को उसका कर्तव्य ही समझ लिया जाता है.. पर ये सब कुछ पितृसत्तात्मकता के जाल में परवरिश के तरीके से उपजे बिहेवियोरल डिसऑर्डर्स हैं, जिन्हें जेण्डर एक्सपर्ट्स की काउंसलिंग के द्वारा कुछ हद तक संतुलन में लाया जा सका है.
वैसे शुरुवात में आपने जिस कल्पनाओं के राजकुमार की बात की है...विवाह से पूर्व तक कुछ वैसी ही परियों की कल्पना पुरुषों की भी होती है... पर अपने काल्पनिक फ्रेम में हूबहू किसी व्यक्ति का फिट बैठना यकीनन संभव नहीं... यहीं एक दूसरे को, जैसे वो हैं वैसे ही अपनाना होता है.
यहाँ ये समझना भी आवश्यक है कि जितना मनुष्य किसी बुरे पल को याद करता है और पकड़ कर बैठ जाता है (यानी एक बार के दुःख में बार बार आंसू बहाता है )..क्या उतना ही किसी अपनत्व के खुशनुमा पल को कभी पकड़ता है ( और एक ही खुशी पर बार-बार खुश होता रहता है)
जहाँ कहीं भी अवसर मिले कोइ भी इंसान किसी कमज़ोर को अपने अधीन करने से नहीं चूकता... यहाँ स्त्रियों का कमज़ोर होना ही सबसे बड़ा कारण है अन्यथा जहाँ कहीं भी पुरुष कमज़ोर होते हैं स्र्त्रियों को भी उनके प्रति बहुत ही कठोर रवैया अपनाते हुए देखा गया है.
प्रेम क्या है "दुसरे के प्रति त्याग और समर्पण" शायद नहीं!
त्याग सिर्फ त्याग है, समर्पण सिर्फ समर्पण
प्रेम एक बहुत ही बड़ा भाव है...जिसे किसी भी और भाव के साथ मिलाने पर वो विकृत ही होता है... प्रेम होता है विशाल ह्रदय रखते हुए, बिना किसी अपेक्षा के, हर हाल में किसी को जैसा वो है वैसा ही स्वीकार करना... वर्ना सिर्फ अपेक्षाएं, समझौते, सौदागरी आदि रह जाता है.
इस विषय पर बहुत संवेदनशीलता से आपने आलेख लिखा..आपको इस सार्थक आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीया मीना जी
सादर.
आदरणीय विजय मिश्रा जी सहमत हूँ आपसे ... बहुत बहुत आभार | सादर
सादर आभार आदरणीय गिरिराज जी | आपसे स्नेह और आशीर्वाद की हमेशा अपेक्षा रहती है |
आदरणीय शिज्जू जी बहुत बहुत आभार लेख को आपने समय दिया | सादर
आदरणीया मीना जी , आपने लेख के माध्यम से बहुत सुन्दर विचार व्यक्त किया है , आपको बधाई !!
जो बातें आपने कही है वो सच्चाई है हमें सबसे ज़्यादा निराशा तब होती है जब परिस्थितियाँ अपेक्षानुरूप नहीं होती, भविष्य किसी ने नहीं देखा है शादी या प्रेम ये ऐसी घटनायें हैं जो हमें जिस रूप मे मिले उसी रूप में अपनाना पड़ता है, फिर बदलाव बाद की प्रक्रिया है। ये सच है कि आज भी आम हिन्दुस्तानी समाज पुरूषप्रधान है लेकिन इनके अंदर भी भावनायें होती हैं। किसी के मन में क्या है ये बताना तो मुश्किल है, हौसला हिम्मत सजगता हमे हर परिस्थिति का सामना करने में सक्षम बनाती है।
आदरणीया मीनाजी इस लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई
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