क्या भूलूँ क्या याद करूँ ?
सब परछाईं सा लगता है
कब पूछा किसने हाल मेरा
किसने मुझ को दुलराया था
हर काम यहाँ मेरा नसीब
सब कुछ हमको ही करना था
क्या बोलूँ क्या न बोलूँ ?
बस मौन साध के रहना है
घर छोड़ के आई बाबुल का
सोचा ये आँगन मेरा है
पर कोई नहीं जिसे अपना कहूँ
है देश यहाँ बेगानों का
क्या सोचूँ क्या ना सोचूँ ?
बस चंद दिनों का मेला है
सब जन करते निंदा मेरी
करना था वो करती आई
गर फिर भी पात्र हूँ निंदा की
तो सिर आँखों पर निंदा मेरी
क्या देखूँ क्या ना देखूँ ?
ये जग तो सिर्फ छ्लावा है
बस मौन रहो कर्तव्य करो
मत सोच सराहा जाएगा
रिश्तों की ठेलम-ठेला जग
अपने मन में संतोष करो
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना मिश्रा बाजपेई
Comment
बस मौन रहो कर्तव्य करो मत सोच सराहा जाएगा रिश्तों की ठेलम-ठेला जग अपने मन में संतोष करो
आदरणीया कल्पना बाजपेयी जी, मर्म और कर्म दोनों एक साथ !!! यही सकारात्मक सोच सफलता के द्वार खोलती है, सुन्दर रचना हेतु बधाई........................
आदरणीया कल्पना जी इस कविता के जरिये भावनाओं का मार्मिक वर्णन किया है हार्दिक बधाई आपको,
सादर,
क्या भूलूँ क्या याद करूँ ?
सब परछाईं सा लगता है
कब पूछा किसने हाल मेरा
किसने मुझ को दुलराया था
हर काम यहाँ मेरा नसीब
सब कुछ हमको ही करना था
क्या बोलूँ क्या न बोलूँ ?
बस मौन साध के रहना है.....बहुत अच्छा लगा ये पक्तियाँ.....बहुत सुंदर. हार्दिक बधाई.
नारी की पीड़ा झलकती है i सुन्दर i
आ० सुशील सर आपका हार्दिक आभार /सादर
आदरणीया कल्पना मिश्रा बाजपेई जी आंतरिक मनोभावों के द्वन्द को चित्रित करती ये रचना किसी के भी हृदय को झकझोड़ सकती है। इस मर्म स्पर्शी रचना की प्रस्तुति के लिए आप निश्चय ही बधाई की पात्र हैं।
आ० श्याम नारायन वर्मा सर हार्दिक आभार /सादर
बहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई ............... |
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