जेठ की तपती दुपहरी!
जेठ की तपती दुपहरी, लगे नीरव शांत।
धूप झुलसा रही काया, स्वेद से मन क्लांत।।
शाख पर पक्षी विकल है, गेह में मनु जात।
सूर्य अम्बर आग उगले, जीव व्याकुल गात।१।
जल भरी ठंडी सुराही, पान कर मन तुष्ट।
दूध माखन और मठठा, तन करे है पुष्ट।।
पना अमरस संग चटनी, भा रहे पकवान।
कर्ण को मधुरिम लगे फिर, आज कोयल गान।२।
गूँजता अमराइयों में, बिरह पपिहा राग।
गाँठकर छाया दुपहरी, पढ़ रही निज भाग।।
कृष हुई सरिता निराली, सूख मंथर चाल।
फूल गुलमोहर खिले हैं, आज देखो लाल।३।
शयन गृह वातानुकूलित, पेय शीतल मांग।
मन ललचता देख कुल्फी, ठण्डई औ भांग।।
ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियों में, सुरमई हो शाम।
घूमकर शिमला मनाली, कर रहे विश्राम।४।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इस सुन्दर गीत रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय भाई सत्यनारायण जी .
सादर आभार आ. लडिवाला जी
ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियों में, सुरमई हो शाम।
घूमकर शिमला मनाली, कर रहे विश्राम।४।-----यथार्थ भाव | सुन्दर गीत रचना के लिए बधाई
चांदनी की चासनी में, शाम गजल के नाम
पान शीतल पेय का, कवियों का यह धाम |
सादर आभार आदरणीय नीरज जी
सादर आभार आदरणीया विन्दु जी
वाह बहुत सुन्दर जेठ की गरमी और उससे उपजे परिवेश का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है आदरणीय ..
इस छंदबद्ध गहन रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय सत्यनारायन जी।
सादर
सादर आभार आदरणीय विजय निकोरे जी
सादर आभार आदरणीया अन्नपूर्णा जी
सादर आभार आदरणीय सुशिल सरना जी
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