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हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको खार लगी
बहुत संभाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहां थे जख्म वहीं चोट बार-बार लगी
कदम कदम पे हिदायत मिली सफर में हमें
कदम कदम पे हमें ज़िंदगी उधार लगी
नहीं थी कद्र कभी मेरी हसरतों की उसे
ये और बात कि अब वो भी बेकरार लगी
मदद का हाथ नहीं एक भी उठा था मगर
अजीब दौर कि बस भीड़ बेशुमार लगी
संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
आदरणीय laxman dhami जी आपका हार्दिक धन्यवाद
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय शिज्जु शकूर जी
वाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है बधाई स्वीकारें
अच्छी ग़ज़ल , मतला और पहला शेर बहुत अच्छे हैं.. दाद क़ुबूल करें...
सुन्दर i अर्थपूर्ण i जीवन का अनुभव झलकता है i
एक सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय .
बहुत खूब आदरणीय संजूजी बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये
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