एक ---
मेरे, उसके बीच
बहता है
एक खामोश दरिया
जिस पे कोई पुल नहीं है
चाहूँ तो
शब्दों के खम्बो
वादों के फट्टों का
पुल खड़ा कर सकता हूँ
मगर
मुझे अच्छा लगता है
दरिया में
उतारना खामोशी से
और फिर
डूबते उतरते
उतर जाना उस पार
दो ----
अनवरत
चल रहा हूँ
नापता
शब्दों की सड़क
ताकि पहुंच सकूँ
अंतिम छोर तक
कूद जाने के लिए
एक खामोश समंदर में
हमेशा हमेशा के लिए
मुकेश इलाहाबादी ----------
-मौलिक एवं अप्रकाशित।
Comment
JEE BAHUT BAHUT AABHAAR IS HAUSLAA AAFZEE KE LIYE - SAURABH PANDEY JEE
आपकी संवेदना शाब्दिक हो कर जिस ढंग से अभिव्यक्त होती है वह हमसभी के लिए उदाहरण बनाती है.
इस प्रस्तुति ने भी आत्मीय सुख दिया है. मनोदशा के इस विशेष पहलू को साझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, भाईजी.
आपकी दोनों कविताओं के लिए मैं दिल से बधाई देता हूँ.
अंतिम छोर तक
कूद जाने के लिए
एक खामोश समंदर में
हमेशा हमेशा के लिए...सुंदर भावों को सहेजे सुंदर रचना ...शब्दों के सहारे हम भी अंतिम छोर तक पहुंचे ..आप चाहते थे कूद जाना लोग डूब गए ..इस बेहतरीन रचना पर हार्दिक बधाई सादर
वाह बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति बहुत बहुत बधाई आपको
BAHUT BAHUT SHUKRIAA - CONTEE JEE & LAXMAN PRASAD LADIWALA JEE IS HAULAA AAFZAAEE KE LIYE
बहुत सुंदर रचना.....हार्दिक बधाई.
दरिया पार करने का होंसला रखने को लेकर रची कविता, और अंतिम छोर तक खामोश चलते रहने की सुन्दर कल्पना
विचारों का प्रवाह लिए रची दोनो रचनाओं के लिए बधाई
bahut bahut shukriaa - rachnaa pasandgee ke liye Gopal Narayan jee & Meena Pathak jee
मुकेश जी
एक दरिया दूसरा समंदर i
एक के पर जाना है दूजे में सामना है i
क्या बात है i अति सुन्दर i
बहुत उम्दा ... अच्छी लगी आप की खामोशी ... बधाई | सादर
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