बहर - 2122 / 1212 / 2122
रेत पर किसके नक्शे पा ढूँढता हूँ !
ज़िंदगी क्यूँ तेरा पता ढूँढता हूँ !!
किस ख़ता की सज़ा मिली मुझको ऐसी
माज़ी में अपने ,वो ख़ता ढूँढता हूँ !!
य़क सराबों के दश्त में खो गया मैं
अब निकलने का रास्ता ढूँढता हूँ !!
दौरे गर्दिश में संग ,गर चल सके जो
कोई ऐसा मैं हमनवा ढूँढता हूँ !!
रौशनी थी मुझे मयस्सर कब आखिर
फिर भी क्यूँ कोई रहनुमा ढूँढता हूँ !!
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चिराग़ [June 28,2014]
पूर्णतः मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
किस ख़ता की सज़ा मिली मुझको ऐसी
माज़ी में अपने ,वो ख़ता ढूँढता हूँ !!.. . वाह !
दाद कुबूल करें
केडिया जी, ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आ0 भाई चिराग जी बेहतरीन गजल हुई है ।हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
केदिया चिराग भाई अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मेरी ओर से बधाई स्वीकारें. प्रयासरत रहिये आपसे और बेहतर कहन की अपेक्षा है.
आदरणीय चिराग भाई , मै अपनी बिना सोचे समझे दिये सलाह के लिये शर्मिन्दा हूँ , आपभी रोकियेगा नही शर्मिन्दा होने से ॥ सच है कि मै ढूँढता के आ को काफिया मान बैठा था । कचरे मे डालिये मेरी सलाह को । सादर ।
खेद और क्षमा के साथ मैं गिरिराज जी की बात का समर्थन वापस लेती हूँ ,वैसे उनके कहने के मकसद से प्रभावित होकर काफिया पर ध्यान नहीं दिया,अब आपके कहने पर गौर किया सच है यहाँ सहर आ ही नहीं सकता ,आ० गिरिराज जी भी यही गलती कर बैठे शायद ,ढूँढता को काफिया और हूँ को रदीफ़ समझ बैठे ,एक बार फिर से इस शानदार ग़ज़ल की बधाई
आप सबने जो स्नेह और प्यार दिया उसके लिये मैं तहे दिल से आप सबका शुक्रगुज़ार हूँ ...गिरिराज जी आपके सुझाव निस्संदेह बहुत ही उम्दा है लेकिन एक दिक्कत ये है की ग़ज़ल में "आ" काफिया मुंसलिक किया है ..जैसे नक़्शे पा ,पता ,खता ,रास्ता ,हमनवा -ऐसे में रहनुमा हमकवाफी होता है इसलिए "सहर ढूँढता हूँ"ये ग़ज़ल में जा नहीं रहा ...वैसे शेर ए आखिरी में ये कहना चाहा था ..
रौशनी थी मुझे मयस्सर कब आखिर
फिर भी क्यूँ कोई रहनुमा ढूँढता हूँ !!
यहाँ मैंने रौशनी को पथप्रदर्शक के रूप में लिया है ...यानि राहें अँधेरी हैं ...जहाँ पथप्रदर्शन को रौशनी चाहिए ...यहाँ गुरु या उस्ताद या रहनुमा के लिये रौशनी की उपमा दी है ..और इस लिये मिसरा ए उला में रहनुमा का काफिया बाँधा है...जिन्दगी में पहली बार ग़ज़ल कहने की गुस्ताखी की इसलिए शायद शेर अन्तर्निहित को स्पष्ट करने में समर्थ नहीं हुआ ...
चिराग जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई ,आ० गिरिराज जी के सुझाव का मैं भी समर्थन करती हूँ |आपको ग़ज़ल की बधाई |
आदरणीय चिराग भाई , अच्छी गज़ल कही है , आपको दिली बधाइयाँ ।
अंतिम शेअर मे दोनो मिसरों में मै सम्बंध नही बैठा पाया , अगर ऐसा कहें तो --
रौशनी थी मुझे मयस्सर कब आखिर
फिर भी क्यूँ ,मै कोई सहर ढूँढता हूँ !! ---- शायद अच्छा लगे । सोचियेगा ॥
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