मुझको तो गुज़रा ज़माना चाहिए।
फिर वही बचपन सुहाना चाहिए।
जिस जगह उनसे मिली पहली दफा,
उस गली का वो मुहाना चाहिए।
तैरती हों दुम हिलातीं मछलियाँ,
वो पुनः पोखर पुराना चाहिए।
चुभ रही आबोहवा शहरी बहुत,
गाँव में इक आशियाना चाहिए।
भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।
सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।
घुट रहा दम बंद पिंजड़ों में खुदा,
व्योम में उड़ता तराना चाहिए।
थम न जाए लेखनी यह ‘कल्पना’
गीत गज़लों का खज़ाना चाहिए।
मौलिक व अप्रकाशित
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भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।
सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।
वाह वाह वाह,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,बहुत खूब
आदरणीया कल्पना जी , शुरू से आखिर तक सभी अश आर बहुत सुन्दर कहे हैं , लाजवाब !! आपको दिली बधाइयाँ ।
आ० कल्पना जी,
"बहुत खूब कहा आपने-जिस जगह उनसे मिली पहली दफा, उस गली का वो मुहाना चाहिए"
दरअसल उस मुहाने से गुजरते हुए हमेशा प्रेम की उस गंध का एहसास होता ही है. बधाई के शब्द कम पड़ रहे हैं.
बहुत सुंदर सादगीपूर्ण गजल, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया कल्पना जी
मतले से शुरू किया तो बस मक्ते के साथ रुका बेहद खूबसूरत रवाँ ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई इस बेमिसाल ग़ज़ल के लिये।
वाह वाह वाह, एक एक शेर बेशकीमती नगीने हैं, उम्दा कहन और शिल्प की कसावट, बहुत बढ़िया, बधाई आदरणीया कल्पना रमानी जी।
अतीव सुन्दर i खासकर ये पंक्तियाँ --
घुट रहा दम बंद पिजड़ों में खुदा,
व्योम में उड़ता तराना चाहिए।
थम न जाए लेखनी यह ‘कल्पना’
गीत गज़लों का खज़ाना चाहिए। सादर , महनीया i
जहाँ एक और अतीत की ,बचपन की मासूमियत भारी यादों का दर्पण है ये ग़ज़ल दूसरी और आज के जीवन की कलई खोलती है
बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर |हार्दिक बधाई आपको आ० कल्पना दी |
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