हवा का शौक जब पर कुतरना हो गया है
तभी से इंकलाबी परिन्दा हो गया है
वो मेरी रहगुजर का उजाला हो गया है
उसे है जब भी देखा सवेरा हो गया है
तुम्हारे बिन गुजारा हमारा हो गया है
हमें जीनें का पक्का इरादा हो गया है
यहाँ बस्ती जली थी औ' ये अख़बार चुप था
तिरा आना ख़बर में धमाका हो गया है
शराफ़त,सच व ईमां हो सीरत आदमी की
मियाँ किस वहम में हो तुम्हें क्या हो गया है
ये मौसम संगदिल है या सूरज की है साजिश
पिघलकर आज शबनम कुहासा हो गया है
कोई कब है टिका जब भी आया दौरे तूफाँ
मदारी था जो कल तक जमूरा हो गया है
मौलिक वा अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय भुवन भाई दिली दाद कुबूल करें
आदरणीय भुवन भाई , खूब सूरत गज़ल कही है , बधाइयाँ । बह्र जाने बिना अधूरापन लग रहा है ॥
बहुत खूब भुवन भाई, मजा आ गया; बधाई ।
waah kya baat ..bahut khoob
यहाँ बस्ती जली थी औ' ये अख़बार चुप था
वो छींका और ख़बर में धमाका हो गया है
v
शराफ़त,सच व ईमां हो सीरत आदमी की
मियाँ किस वहम में हो तुम्हें क्या हो गया है,,,आदरणीय भुवन जी कमाल की ग़ज़ल ..हर शेर उम्दा है ..बिशेष रूप से मुझे ये शेर बेहद पसंद आये ..आपको ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ सादर
आदरणीय भुवन भाई अच्छी ग़ज़ल कही है आपकी इससे पहले काफी अच्छी गज़लें पढ़ चुका हूँ इस बार मेरे मन का पाठक संतुष्ट नहीं हो सका ग़ज़ल अधपकी सी लगी. खैर प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें.
भुवा निस्तेज जी
बड़ी सुदर गजल हुई है i प्रयास जारी रखे i
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