१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें
फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें
तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें
न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर- भर दुहाई दें
कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला
झुका देती जबीं अपनी सजाएँ जब कसाई दें
उड़े कैसे भला तितली लगे हैं घात में शातिर
खुदा की रहमतें ही बस उन्हें अब तो रिहाई दें
करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका
सितम गर रूहें , खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें
फ़सुर्दा =मुरझाई हुई
महफ़ूज़ =सुरक्षित
जबीं =माथा
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० डॉ० गोपाल नारायण जी ,आपने इस ग़ज़ल को जो मान बक्शा है उसका तहे दिल से शुक्रिया ,मेरा लिखना सार्थक हुआ |
आ० गिरिराज जी ,ह्रदय तल से आभारी हूँ कि आपने ग़ज़ल के अशआरों की हर नस टटोली आपका अनुमोदन मिला जो मेरी आश्वस्ति का कारण बना ,अशआर अपनी गाथा पाठक के दिल तक पँहुचा दे बस एक लेखक को यही चाहिए ,इस उत्साह वर्धन हेतु तहे दिल से आभार आपका |
महनीया
नारी की वेदना नारी ही समझती है, यह आपकी गजल से स्पष्ट है i मतले से मकते तक कही सांस नहीं रुकती 1 शेरो का रुआब देखते ही बनता है i
आदरनीया राजेश जी , बहुत खूब सूरत गज़ल कही है , उम्मीद से दो गुना ॥ हर शेर सीध्रे दिल मे उतर रहे हैं । आपको बहुत बधाइयाँ , अनेकों धन्यवाद इस ग़ज़ल को पढवाने के लिये ॥
मेरी समझ में वो शेअर जिस पर चर्चा ज़ारी है - इसके सानी मे आया हर्फ - कसाई - मिसरा ए उला को सीधे सीधे गौ माता से जोड़ रहा है , और बिम्ब के अलावा भी इस शेअर का अर्थ गो हत्या की तरह इशारा करता लगता है , और अर्थ भी साफ साफ है ॥ लेकिन ये बात भी सही है कि हर पाठक अपनी अपनी समझ से ही समझ पाता है , और इसमे कोई ग़लती भी नहीं है ॥ सादर ॥
जी नीलेश जी आपने दुरुस्त फरमाया कसाई पेशा ही है किन्तु अत्याचारी को भी हम आम बोलचाल में क्रोध में कसाई बोलते हैं ये मेरा तर्क है.
किन्तु जो आपने विकल्प दिया है वो भी काबिले तारीफ़ ,स्वागत योग्य है बहुत- बहुत आभार आपका.
कसाई होना एक पेशा है ..आतंकवाद से इसे नहीं जोड़ा जा सकता ...
जितनी बाते आपने कही हैं ..तर्क पर दुरुस्त हो सकती हैं और चूंकि आपने लिखा है तो निश्चित ही आपके मन में कोई न कोई छवि होगी ही इस बारे में लेकिन पढने वाले को वो सारी छवियाँ इस शेर के माध्यम से नहीं दिख पा रही है...
Reader’s voice ..
कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला
झुका देती जबीं अपनी सज़ा जब आतताई दें..
सादर
आ० डॉ विजय शंकर जी ,आपको अशआर उसका भाव पसंद आया तहे दिल से आभार आपका |
नीलेश जी वो तो सिर्फ बिम्ब लिया है वर्ना क्या आतंकवाद में (यही थीम है इस ग़ज़ल की ) माओं बहनों को आतंकवादी क़त्ल नहीं कर रहे कई वीडियोज देखिये औरत की गर्दन झुकी है और उसे शूट कर रहे हैं ---ये शेर सिर्फ गाय या बकरी के लिए ही नहीं माँ या भारत माँ सब के लिए एप्लीकेबल है इसे लिखते वक़्त यही सोच हावी थी जहन में.
कुछ कुछ स्पष्ट हुआ लेकिन सानी और ऊला के अंतर्संबंध में उलझन हो रही है... ऐसा प्रतीत हो रहा है कि माँ ..कसाई के सामने सर झुका देती है .....गाय ..बकरी का ज़िक्र नहीं आ पा रहा है जैसा आपने नीचे कमेंट में कहा है..
सादर
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