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सुपरिष्कृत आस्था .... (विजय निकोर)

सुपरिष्कृत आस्था

 

भर्रायी आवाज़
महीने हो गए जाड़े को गए

क्यूँ इतनी ठिठुरन है आज

आस्था में, सचेतन में मेरे

आंतरिक शोर के ताल के छोर से छोर तक

ठेलती रही है आस्था मुझको, मैं इसको

पर आज बुखार में ओढ़ने को इस पर

पास मेरे कोई कम्बल नहीं है

नुकीले अनुभवों से छिदराई

परिस्थितियों से पल-पल फटी शाल के सिवा

 

स्वजनों के बिछोह के आरोहावरोह

धूल भरे विश्वासों के संघर्ष

महानदी में आस्था पहले कभी ऐसी

घबराई तो न थी

हुआ है कुछ, या आज कुछ होने को है

नियति को भी शायद यह पता नहीं है

 

प्रचलित प्रथाओं के दावानल

पराभूत हुए मेरे सभी प्रत्यय

ठिठुरती आस्था, चिंतित चेतन

कह दूँ इनसे कि पास मेरे अब

कोई संबल नहीं है, संघर्ष हैं बहुत

स्वावलंबन नहीं है?

पर मैं इतना निराश क्यूँ हूँ?

पास अभी भी सिधांत तो हैं

सत्यनिष्ठा है, मन:शक्ति है

विवेक है, चरित्र है

क्यूँ न घेर लूँ मैं इनसे

परिकंपित चेतन को, ठिठुरती आस्था को

करूँ अनुभव आत्मा की अरुणाभ शोभा को

              -------------

                                                       

 -- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

                                     

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Comment

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Comment by vijay nikore on August 1, 2014 at 11:31am

//सच में पढ़ कर दिल भर आया 

पाठकों को रचनाओं में डुबो देने का चमत्कार है आपकी कलम में//

इतना मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार , आदरणीया राजेश जी।

Comment by vijay nikore on August 1, 2014 at 11:29am

// ऐसा लग रहा है जैसे आपने मेरी भावनाओं को शब्द दे दिए हों, अगर मेरी भावुकता  में दी गई प्रतिक्रिया से आपको  ठेस पहुंचे तो ,अनुज हूँ क्षमा कीजियेगा//

मेरे भाई जितेन्द्र जी, क्षमा कैसी ? आपने तो रचना को ऐसी सराहना दे कर मान दिया है। आपका हार्दिक धन्यवाद।

Comment by Vindu Babu on July 30, 2014 at 1:59pm
आदरणीय निकोर सर,
सादर प्रणाम.

असीम संघर्ष के बाद नैराश्य में गोते खाते हुए मन को पुन: ऊर्जान्वित करने के लिए भी हमारे पास बहुत कुछ शेष रहता है...हम उसे पहचाने तो,अपने अन्दर के प्रकाश को जानें तो...पुन: जिजीविषा चेतन हो उठती है. बहुत ही अच्छा लिखा आपने.

निराशा की गर्त से उबरने की राह को प्रकाशित करती हुई आपकी इस अनुपम रचना को नमन.

ऐसी रचनाएं हम पाठकों को नव-ऊर्जा देती हैं आदरणीय.

इस अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक आभार और बधाई.
सादर
Comment by Priyanka singh on July 26, 2014 at 8:18pm

पर मैं इतना निराश क्यूँ हूँ?

पास अभी भी सिधांत तो हैं

सत्यनिष्ठा है, मन:शक्ति है

विवेक है, चरित्र है

क्यूँ न घेर लूँ मैं इनसे

परिकंपित चेतन को, ठिठुरती आस्था को

करूँ अनुभव आत्मा की अरुणाभ शोभा को....आदरणीय विजय सर ...हर बार कहती हूँ और इस बार भी यही कहूँगी ...आपकी सोच और उस सोच को शब्दों में बांधना ....बहुत लाजवाब है ...आपको पढ़ना अपने अंतर्मन को पढ़ने जैसा है ... इस रचना ने भी मुझे ....मुझसे मिला दिया ....मेरे हालात और मेरे ज़ज्बात इस रचना में उतर आये है जैसे .... और रचना के अंत की तरह ही मैंने भी खुद को यही कह के ...खड़ा किया .... बहुत कुछ है मेरे पास फिर में निराश क्यूँ हूँ .... 

बहुत बहुत नमन आपको सर .... आपकी लेखनी कमाल है ... बहुत बहुत नमन ... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 10:50pm

आदरणीय विजय निकोरजी,

’होना या न होना..’ का द्वन्द्व चेतन मनुष्य तक को व्यामोह में रखना चाहता है. यह अलग बात है कि सचेत मनुष्य इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होता जबकि सामान्य जन अपने पूरे वज़ूद ही को ही दाँव पर चढ़ा देते हैं. आपकी प्रस्तुत रचना जिस व्यवस्थित ढंग से मानवसुलभ विभ्रम को शब्दबद्ध करती है वह आपकी रचनाधर्मिता के प्रति सादर भाव जगाती है.

हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय

Comment by mrs manjari pandey on July 17, 2014 at 8:07pm
आदरणीय विजय निकोर जी बिलकुल आशावान बने रहने की ज़रुरत है जब तलाक है साँस तब तलक है आस। सुन्दर भावपूर्ण कविता

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 16, 2014 at 12:44pm

पर मैं इतना निराश क्यूँ हूँ?

पास अभी भी सिधांत तो हैं

सत्यनिष्ठा है, मन:शक्ति है

विवेक है, चरित्र है

क्यूँ न घेर लूँ मैं इनसे

परिकंपित चेतन को, ठिठुरती आस्था को

करूँ अनुभव आत्मा की अरुणाभ शोभा को

बहुत सुन्दर भाव , आदरणीय बड़े भाई विजय जी , बहुत कुछ अभी बाक़ी है , आस्था घिरेगी और ज़रूर घिरेगी , ठिठुरन खत्मभी होगी । 

आदरणीय लाजवाब कविता के लिये आपको दिली बधाइयाँ ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:47am

आ0 भाई विजय निकोर जी , सादर अभिवादन । एक कटु सत्य जो सभी के जीवन में कहीं न कहीं, कभी न कभी मुखरित होता है, भावनाओं का स्वरूप् दे शब्दों में पिरोने के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by कल्पना रामानी on July 14, 2014 at 10:45pm

कविता का एक एक शब्द झकझोरता हुआ अंतरात्मा को छू जाता है, अनंत आशाएँ जगाती हुई सुंदर भावपूर्ण रचना हेतु आपको हार्दिक बधाई आदरणीय निकोर जी।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 14, 2014 at 3:22pm

आदरणीय निकोर जी

किस किस पंक्ति पर  बिछूं i

पर आज बुखार में ओढ़ने को इस पर

पास मेरे कोई कम्बल नहीं है

नुकीले अनुभवों से छिदराई

परिस्थितियों से पल-पल फटी शाल के सिवा

या

महानदी में आस्था पहले कभी ऐसी

घबराई तो न थी

हुआ है कुछ, या आज कुछ होने को है

नियति को भी शायद यह पता नहीं है

क्यूँ न घेर लूँ मैं इनसे

परिकंपित चेतन को, ठिठुरती आस्था को

करूँ अनुभव आत्मा की अरुणाभ शोभा को

 और फिर देदीप्यमान अन्तश्चेतना--------- आह सुन्दरते ---- अमरते------अभिनवे  !

 

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