छपाक्… !
“अरे ये क्या किया.. जाने देते.. ”, एक यात्री डपटता हुआ चिल्लाया, “..फ़िर किसी और को बेच दोगे.. साले पूजा की चीजें भी नहीं छोडते हैं ये..”
“जब पूजा करना तो बोलना.. वर्ना सरकार ने अब गंगा को गंदा करने वालों को जेल भेजना शुरु कर दिया है..”, एक तिरछी मुस्कान के साथ मन्नू ने आँख मारी.
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
कथा पर विस्तृत विचार रखने के लिये घन्यवाद.
सादर.
आदरणीय गोपाल नारायण जी, कथा के पर अपने विचार रखने के लिये धन्यवाद.
सादर.
आदरणीया वेदिका जी.
आज सभी अपने आप् को अपडेट करते हैं मन्नु भी उसी में है. कथा पर विचार देने के लिये धन्यवाद्.
सादर.
आदरणीय संतलाल जी,
कथा पर समय देने के लिये धन्यवाद.
सादर.
कभी-कभी मन्नू जैसों के मुह लगने में बहुत बुरी मुहं की खानी पढ़ जाती है, मन्नू चाहे उस नारियल को बेचे या नही. अभी तो सरकारी निति उसके साथ है. बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय शुभ्रांशु जी, बहुत-२ बधाई आपको
पहली नज़र में ये एक समसामयिक लघु कथा लगी जो अपनी बात स्पष्ट करने में सक्षम है ,वो कहते हैं न सावन के अंधे को हरा हरा ही दीखता है ,,,,यहाँ ये कहावत अच्छी तरह चरितार्थ हो रही है (अर्थात मन्नू सफाई कर रहा हैऔर लोग गलत अर्थ में ले रहे हैं ) दूसरा भाव ---जो डॉ गोपाल जी ने कहा वो भी हो सकता है कि मन्नू सरकार की इस नीति का फायदा उठाकर हाजिर जबाबी कर रहा है (उसके अंत में आँख मारने से प्रतीत हो रहा है ) दोनों ही भाव में लघु कथा एक सोच को जन्म देती है अब पाठकों पर निर्भर है जिस तरह लें पर कहानी ने अपनी छाप छोड़ दी है इसमें दो राय नहीं हैं ,आपको बहुत बहुत बधाई शुभ्रांशु जी |
बहुत सुन्दर i
चोरी भी सीनाजोरी भी i
आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी,
सामयिक चर्चा-परिचर्चा पर केन्द्रित प्रभावी लघुकथा, हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
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