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सुरेश रात-दिन कितनी भी शरीर-तोड़ मेहनत कर ले, अपनी पत्नि रजनी और दोनों बच्चों के खर्च के साथ-साथ मोबाईल, मोटर-साइकिल,मकान का किराया सब कुछ वहन नहीं कर सकता. अब पेट काटकर धीरे-धीरे अपना घर बनाना शुरू तो कर दिया पर कभी सीमेंट ख़त्म, तो कभी लोहा.

लेकिन.. जब से सुरेश से कहीं ज्यादा कमाने वाले मित्र, अशोक का उसके यहाँ आना-जाना शुरू हुआ है, तब से घर का काम दिन दोगुना -रात चौगुना चल रहा है. आजकल तो सुरेश अपने घर के बंद दरवाजे के बाहर अशोक के जूतों को देख, अपने नए बन रहे घर कि ओर चला जाता है..

     

जितेन्द्र 'गीत'

(मौलिक व् अप्रकाशित)  

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2014 at 10:47pm

रचना पर आपके आशीर्वाद हेतु आपका ह्रदय से आभार आदरणीय डा.गोपाल जी. वर्तमान को  प्रक्टिकल कहा जा सकता है.

सादर!

Comment by MAHIMA SHREE on August 4, 2014 at 9:25pm

बधाई आपको .. अपने सपनों और जरुरत को पूरा करने के लिए कैसे अपने संस्कार और नैतिकता को ताक पर जानबूझ कर रख देते है बहुत सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया आपने सादर 

Comment by Shubhranshu Pandey on August 4, 2014 at 4:09pm

आदरणीय जितेन्द्र जी, सुन्दर कथा.

जूतों के दरवाजे के बाहर की उपस्थिति, सुरेश के निम्न आत्म- बल का द्योतक है.

सादर.

 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 4, 2014 at 3:19pm

परम सनेही जितेन्द्र जी 

ऐसा होता है इसे नकारा नही जा सकता 

बधाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 4, 2014 at 12:19pm

जीतू भाई

बहुत प्रक्टिकल  कथा है i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 4, 2014 at 10:35am

इंसान सच में कहाँ तक गर्त में गिर सकता है कोई अय्याशी  के गर्त में तो कोई निर्धनता या लाचारी के गर्त में ,क्या दोस्त है जो मजबूरी का फायदा इस तरह उठा रहा है क्या पति है जो पत्नी को नए घर का सुख इस तरह देगा सच में ये लघु कथा बहुत  कुछ सोचने पर विवश करती है ,बहुत- बहुत बधाई जितेन्द्र गीत भैया.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2014 at 10:15am

आपका हार्दिक आभार आदरणीय विनय जी

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2014 at 10:15am

आपका हार्दिक आभार आदरणीय रमेश जी

सादर!

Comment by विनय कुमार on August 3, 2014 at 11:51pm

इंसान कहा तक गिर सकता है , बहुत अच्छी लघुकथा , बधाई..

Comment by रमेश कुमार चौहान on August 3, 2014 at 10:17pm

वाह रे लाचारी, यह कैसी विडंबना है । हां ऐसा भी होता है, आपके पैनी नजर को सलाम ‘गीत‘ भाई

कृपया ध्यान दे...

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