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अंधे अंधा ठेलिया (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

“अबे ये बकरी किसकी बंधी हुई है यहाँ ?”
“ज़मींदार साब, ये बदरू की बकरी है, खेत में घुस कर नुस्कान कर रई थी तो पकड़ लाये।“
“अच्छा किया, इन सालों को औकात भूल गई है अपनी।“
“सच कहा सरकार, ऊपर से सरकार ने इन लोगों का और भी दिमाग खराब कर रखा है।“
“तो चढायो आज हांडी पर इस ससुरी बकरिया को।“
“मगर सरकार बदरू तो जात का......”
“अबे मूरख आदमी, जात-पात तो इंसानों की होती है जानवरों की नहीं।”

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 6, 2014 at 4:10pm
जमींदारी चली गयी पर भोग्य और भोज्य अभी भी असुरक्षित हैं, वैसे ही जैसे इस लघु - कथा में दिखाए गए हैं .
आदरणीय रवि प्रभाकर जी इस सटीक लघु कथा के लिए बधाई .

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 6, 2014 at 1:16pm

यानि इन्सान जानवर से भी गया गुज़रा हो गया ? या फिर जानवर ही इंसान से बेहतर साबित हुए ?
पँजाबी शायर श्री मदन मदहोश जी का एक शेअर बरबस याद आ रहा है :

सिंग ताँ पैहलां ही नी सी - पूँछ वी कटवा लई
आदमी ने आदमी बण के ग्वाया बहुत कुछ।  

लघुकथा में दम है अनुज रवि जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है.

Comment by विनय कुमार on August 6, 2014 at 12:25pm

बहुत सुन्दर , सच में जात पात तो इंसानों में ही होती है | बहुत बहुत बधाई..

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