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एक बड़ा हादसा (लघुकथा)

फैक्ट्री में हुए एक भयानक हादसे में उसे अपनी दोनों टाँगे गंवानी पड़ गई, जबकि उसके तीन साथियों को जान से हाथ धोना पड़ा था.
"तुम्हें ठीक होनें में तो अभी बहुत समय लगेगा, जबकि एक महीने के बाद ही तुम्हारी रिटायरमेंट है। इसलिए मैनेजमेंट ने फैसला किया है कि तुम्हें एक महीना पहले ही रिटायर कर दिया जाए।”  उसका हाल चाल पूछने आए सहकर्मियों में से एक ने उसे सूचित किया
“चलो कोई बात नहीं यार, भगवान का शुकर मनायो कि जान बच गई।” दूसरे ने दिलासा देते हुए कहा. 
"हमारे उन तीन साथियों का क्या हुआ जिनकी मौत हो गई थी ?" उसने उदास स्वर में पूछा
"उन सब के बेटों को नौकरी दे दी गई है." उत्तर मिला 
कोने में बैठे अपने बेरोजगार बेटे और उसके तीन बच्चों को देख आज उसे अपने ज़िंदा बच जाने का बेहद अफ़सोस हो रहा था।
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(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by annapurna bajpai on August 14, 2014 at 11:46pm

bahutबहुत खूब , यथार्थ  चित्रण 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 14, 2014 at 11:20pm

दुखद सच लेकिन बढ़िया लघुकथा ! जीवनदान भी इस बेरोजगारी पर भारी पड़ रहा है, कितना दुखदायी है |

सुन्दर लघुकथा के लिए बधाई आदरणीय रवि प्रभाकर जी |

Comment by ram shiromani pathak on August 14, 2014 at 12:43pm

बहुत ही मार्मिक  प्रस्तुति आदरणीय हार्दिक बधाई आपको 

Comment by Meena Pathak on August 13, 2014 at 2:23pm

दिल को झकझोरती लघुकथा हेतु बधाई आदरणीय 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 12, 2014 at 11:26pm

बहुत ही बढ़िया लघुकथा. इंसानी आवश्यकताएं या विवशता भी उसे क्या कुछ नही सोचने पर मजबूर कर देती है. बहुत -२ बधाई आपको आदरणीय रवि जी

Comment by विनय कुमार on August 12, 2014 at 9:43pm

अपने जिन्दा होने का पछतावा , ऐसा माता , पिता ही कर सकते है अपने बच्चों के लिए | बहुत संवेदनशील विषय पर एक सुन्दर कहानी प्रस्तुत की आपने , बहुत बहुत बधाई |

Comment by Shubhranshu Pandey on August 12, 2014 at 8:32pm

आदरणीय रवि प्रभाकर जी, 

जिंदा होने के गम को आपने बखुबी सामने रखा है. सुन्दर कथा.

सादर.

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 12, 2014 at 8:26pm
ज़िंदा बचने का पछतावा , या अपने होने का पछतावा या अपने अस्तित्व का ही पछतावा , किस पछतावे की बात करें या क्यों न एक जीवन ऐसा बनाये जिसमें सबकी खुशहाली की बात करें . पूरी जीवन शैली पर सोचने को मजबूर करती है यह कहानी, उस परिवेश को क्या कहिये जहां हर अच्छाई की व्यवस्था एक बुरा विकल्प बन जाए , वैसे भी किसी ठोस व्यवस्था के अभाव में हम न जाने कब से वैकल्पिक व्यस्थाओं में ही जी रहें हैं.
हादसा / घटना परक इस कहानी के लिए बधाई .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2014 at 8:23pm

पुत्र मोह में पिता अपनी जान  तक देने को तैयार रहते हैं पर बच्चे !!! बहुत कुछ कहती है ये कहानी ,पिता को तो अपने जीवित होने का अफ़सोस हो ही रहा था बेटे बहु के दिल में भी क्या ऐसा ही कुछ  चल रहा होगा ....

सुन्दर कहानी ...बधाई आपको आ० रवि प्रभाकर जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 12, 2014 at 8:12pm

मार्मिक

जिदा बच जाने का पछतावा ---?  काश बच्चे इस दर्द को समझते  !

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