“अबे ये बकरी किसकी बंधी हुई है यहाँ ?”
“ज़मींदार साब, ये बदरू की बकरी है, खेत में घुस कर नुस्कान कर रई थी तो पकड़ लाये।“
“अच्छा किया, इन सालों को औकात भूल गई है अपनी।“
“सच कहा सरकार, ऊपर से सरकार ने इन लोगों का और भी दिमाग खराब कर रखा है।“
“तो चढायो आज हांडी पर इस ससुरी बकरिया को।“
“मगर सरकार बदरू तो जात का......”
“अबे मूरख आदमी, जात-पात तो इंसानों की होती है जानवरों की नहीं।”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सभी महानुभावों का रचना को अपना समय देने और पसंद करने के लिए धन्यवाद
आदरणीय रवि प्रभाकर जी,
आपकी रचना पर एक पुरानी फ़िल्म का सीन याद आ गया जिसमें दादी जी खुले पैसे पर तो गंगा जल छिड़कती हैं, ये कह कर ना जाने किसके -किसके हाथ में गया होगा. लेकिन नोटो को सीधे रख लेती हैं, ये कहते हुये कि ये सबके हाथ में थोडे़ ही जाता है.....
बकरी तो बकरी है कब तक खैर मनायेगी.....
सुन्दर कथा.
सादर.
कहीं कुछ फायदा या स्वार्थ की बात आ आजाये तो सारे नियम तोड़ कर रख दिए जाते है..बहुत प्रभावशील लघुकथा, बधाई आपको आदरणीय रवि जी
ज़िल्ले इलाही का इक़बाल बुलंद रहे आ० सौरभ भाई जी.
उनके हाथों का छुआ पानी पीने से ऐतराज़ करने वाले , उनकी बकरी पचाने के लिये तैयार हैं । वाह रे इंसान , अपने स्वार्थ के लिये बदलते च्रित्र को आपने बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं । आदरणीय इस लघुकथा के लिये आपको बधाइयाँ ॥
समझ गया हूँ, आदरणीय.. पूँछ गँवा कर आदमी ने वाकई बहुत कुछ गँवाया है. इसीसे सभी की पूँछ ढूँढता फिरता है.. :-))
तभी मैंने कहा कि जात-पात मर्दों के लिए होती है.. हा हा हा हा ..
सादर
आ० सौरभ भाई जी, मैंने जो शेअर कोट किया है उसे भी तो देखें ज़रा. पँजाबी में है मगर आप अर्थ समझ जायेंगे।
हाँ, जात-पात मर्दों केलिए होती है.. !! ऐसा लिखा हुआ इतिहास की पोथियों में कम, गाँव के डँड़ेरों और खेतों की पगड़ंडियों में भरा पड़ा है.
बहुत खूब रवि भाई ! इस वार्तालाप शैली में जिस गहनता से कथ्य और तथ्य उभर कर आये हैं वह पूरी वर्णिक व्यवस्था के थोथेपन पर प्रश्न खड़े करते हैं.
दिल से बधाई लीजिये. शुभेच्छाएँ
बेहतरीन i खासकर संवाद जिस अंदाज में सजाये गए i प्रभाकर जी - बधाई i
बहुत प्रभावशाली सटीक लघु कथा ...हार्दिक बधाई आपको आ० रवि प्रभाकर जी|
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