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ग़रीब के हाथ से निवाला न छीनिए (ग़ज़ल 'राज')

12122 12122 1212

कभी लबों तक पँहुचता प्याला न छीनिए

 ग़रीब के हाथ से निवाला न छीनिए  

 

यतीम का बचपना निराला न छीनिए

जमीन, दरगाह या शिवाला न छीनिए

 

बड़ी नहीं कोई चीज़ तहजीब से यहाँ      

नक़ाब, सिर पे ढका दुशाला न छीनिए

 

नसीब में क्या लिखा यहाँ कौन जानता          

किसी जवाँ दीप का उजाला न छीनिए

 

समान हक़ है मिला सभी को पढ़ाई का

गरीब बच्चों से  पाठ शाला न छीनिए 

 

जुड़े खुदा से वहाँ इबादत के तार हैं

उन उँगलियों में थिरकती माला न छीनिए

पुछल्ला ---

 यकीं नहीं है कि वो शराफ़त दिखायेगा 

 कभी किसी बेवड़े से हाला न छीनिए 

------------------------------

(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 16, 2014 at 11:13am

मिथिलेश जी,मेरी पुरानी ग़ज़लों को रीफ्रेश करने का बहुत- बहुत शुक्रिया ,आपको ये ग़ज़ल प्रभावित की मेरा लिखा सफल हुआ हार्दिक आभार आपका.   


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 16, 2014 at 12:03am

कभी लबों तक पँहुचता प्याला न छीनिए

 ग़रीब के हाथ से निवाला न छीनिए  ........... बेहतरीन मतला  

 

यतीम का बचपना निराला न छीनिए

जमीन, दरगाह या शिवाला न छीनिए ........ बहुत अच्छा हुस्ने मतला 

 

 

नसीब में क्या लिखा यहाँ कौन जानता          

किसी जवाँ दीप का उजाला न छीनिए..... उम्दा शेर 

बहुत अच्छी और बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 1, 2014 at 7:43pm

आ० विजय मिश्र जी ,आपको अशआर प्रभावित कर पाए मेरा लिखना सार्थक हुआ आपकी इस उत्साह्वर्धनीय प्रतिक्रिया की तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 1, 2014 at 7:41pm

आ० संतलाल करुण जी ,आपको ग़ज़ल पसंद  आई, मेरी कलम को संबल मिला तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ सादर .

Comment by विजय मिश्र on September 1, 2014 at 5:43pm
राजेशजी,
सारे के सारे बिम्ब आला और अलग से हैं ,हर बंद झकझोरता है ,ये लाइन तो मासल्ला ,क्या कहने ,अकेली ही गजल का मकसद पूरा करती है -
" नसीब में क्या लिखा यहाँ कौन जानता
किसी जवाँ दीप का उजाला न छीनिए|" -- हार्दिक शुभकामनाएँ |
Comment by Santlal Karun on September 1, 2014 at 5:38pm

आदरणीया राकेश कुमारी जी,

इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !  --

"बड़ी नहीं कोई चीज़ तहजीब से यहाँ      

नक़ाब, सिर पे ढका दुशाला न छीनिए"


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 1, 2014 at 4:33pm

आ० गिरिराज जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सफल हुआ तहे दिल से आभारी हूँ  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2014 at 4:06pm

आदरणीया राजेश जी , हमेशा की तरह ये ग़ज़ल भी आपके बहुत बढ़िया कही है  , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 29, 2014 at 5:21pm

आ० डॉ.गोपाल नारायण जी ,आपको ग़ज़ल के अशआर प्रभावित किये मेरा लिखना सफल हुआ ,तहे दिल से आभारी हूँ सादर.   

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 29, 2014 at 12:31pm

महनीया

बेहतरीन गजल i कई  अशआर बहुत ही अच्छे है -

नसीब में क्या लिखा यहाँ कौन जानता          

किसी जवाँ दीप का उजाला न छीनिए

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