संताप और क्षोभ
इनके मध्य नैराश्य की नदी बहती है, जिसका पानी लाल है.
जगत-व्यवहार उग आये द्वीपों-सा अपनी उपस्थिति जताते हैं
यही तो इस नदी की हताशा है
कि, वह बहुत गहरी नहीं बही अभी
या, नहीं हो पायी ’आत्मरत’ गहरी, कई अर्थों में.
यह तो नैराश्य के नंगेपन को अभी और.. अभी और..
वीभत्स होते देखना चाहती है.
जीवन को निर्णय लेने में ऊहापोह बार-बार तंग करने लगे
तो यह जीवन नहीं मृत्यु की तात्कालिक विवशता है
जिसे जीतना ही है
घात लगाये तेंदुए की तरह..
तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है
कसी मुट्ठियों में चाकू थामे दुराग्रही मतावलम्बियों की तरह !
संताप और क्षोभ के किनारे और बँधते जाते हैं फिर
नैराश्य की नदी और सीमांकित होती जाती है फिर
ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना
नदी के लिए हताशा ही तो है !
बन्द करो ढूँढना संभावनाएँ.. सम्मिलन की..
मत पीटो नगाड़े..
थूर दो बाँसुरियों के मुँह..
मान लो.. कि रक्त सने होंठों से चूमा जाना विह्वल प्रेम का पर्याय है..
मांसल सहभोग के पहले की ऐंद्रिक-केलि है
यही हेतु है !
जगत के शामियाने में नैराश्य का कैबरे हो रहा है
जिसका मंच संताप और क्षोभ के उद्भावों ने सजाया है
ऐंद्रिकता का आह्वान है-- बाढ़ !
...जगत-व्यवहारों के द्वीपों को आप्लावित कर मिटाना है...
नदी को आश्वस्ति है
वो बहेगी.. गहरे-गहरे बहेगी..
जिसका पानी लाल है..
******************
-सौरभ
******************
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय पाण्डेय जी ,
कदाचित इस मंच पर इतनी प्रबल शब्द-साधना तथा सघन अर्थछवि की कविता पहली बार पढ़ रहा हूँ | यह कविता शिल्प और संवेदना दोनों की ताजगी लिये हुए है और कुछ-कुछ धूमिल की तदात्मकता और उत्ताप भी; किन्तु कविता का तेवर पूरी तरह समय-सापेक्ष है —
“तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है
कसी मुट्ठियों में चाकू थामे आइएसआइएस मतावलम्बियों की तरह !
संताप और क्षोभ के किनारे और बँधते जाते हैं फिर
नैराश्य की नदी और सीमांकित होती जाती है फिर
ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना
नदी के लिए हताशा ही तो है !”
ऐसी रचनात्मक और उदात्त कविता के लिए सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आदरणीय सौरभ जी
आपकी प्रतिबद्धता मुझे शब्दकोष की शरण में ले गयी i वहां 'संभव' शब्द के जिन अर्थो ने आश्वस्ति दी वह इस प्रकार है - संयोग , समागम,हेतु, कारण , उपयुक्तता, समीचीनता, मुनासिबत i पर फिर एक जिज्ञासा इतने अप्रचलित अर्थो में शब्द का प्रयोग i मै क्या बड़े बड़े विद्वान भटक सकते है आदरणीय i
आदरणीय सौरभ भाई ,इंगित मुझे कन्फुज तो करते हैं , पर जो समझा सका वो ये है --
निराशा से उपजी स्थितियां , हल की छटपटाहट में , सही राह न मिलाने पर और भी गलत से गलत होतीं जाती हैं , और आगे चल के अपना लिहाज का मुखौटा भी उतार के अपने गलत फैसले को ही सही समझा के जीने लग जाती है , यही होता है , हो रहा है , सही सोच न पाने के कारण इसी राह को स्वाभाविक सच मान कर जीने के लिए मजबूर हैं |
इन परिस्थियों में वो नदी जो बहुत गहरे नीचे शान्त बहना चाहती है , बह नहीं पा रही है , और वो चाहती है कि अब व्यर्थकी मिलाने की कोशिशें बंद हों और वास्तविक हल की और बढ़ा जाए , ताकि वो जिस गहराई में बहना चाहती है , बह सकने की स्थितियां पैदा हो सकें |
जिसके लिए नदी तो आश्वस्त है , पर मेरी व्यक्तिगत रूप से आश्व्स्ति बहुत कम है , सड़े गले अंगों को काटना ज़रूरी हो जाता है , और कौन सा अंग सड़ा है इसका फैसला हो नहीं पाता |
अगर समझ बेसुरी हो तो कृपा कर सुर में लगा दीजिएगा --- सादर |
हार्दिक धन्यवाद, आ. श्याम नारायण जी.
कविता पर आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी.
प्रस्तुत कविता के परिदृश्य में संभव का स्थानापन्न संभव नहीं है. संकेत जैसा कोई शब्द तो कत्तई नहीं है. इस शब्द के आलोक में ही प्रस्तुत रचना के भावों को देखें, आदरणीय. निहितार्थ तथा स्थितियाँ अधिक स्पष्ट होंगीं.
सादर
आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपका संवेदनशील पाठक प्रस्तुति के निहितार्थ को महसूस कर रहा है, यह रचनाप्रयास की सार्थकता के लिए आश्वस्ति ही है. अनुमोदन हेतु हृदय से धन्यवाद.
वैचारिक कविताओं में शब्दों का चयन अनायास नहीं होता आदरणीय. संभव जैसा शब्द आपके पाठक को यदि सहज नहीं लग रहा है तो उसके अन्यान्य कारण हो सकते हैं. अन्यथा, बहुत सोच कर उस शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका सहज स्थानापन्न संभव नहीं.
एकबार पुनः आपके प्रति आभार कि आपने प्रस्तुति के निहितार्थ के सिरों को पकड़ने की सार्थक कोशिश की है.
सादर
आपकी आश्वस्त करती टिप्पणी मुझे मुग्ध कर रही है, आदरणीय आशुतोष भाईजी.
पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत कविता के इंगितों का निहितार्थ आपको संतष्ट कररहा है. नैराश्य का महिमा मण्डन समाज में किन अथवा कैसी परिस्थितियों का जनक होता है इस पहलू को पटल पर लाने का एक प्रयास है.
आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय
" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. " |
जीवन को निर्णय लेने में ऊहापोह बार-बार तंग करने लगे
तो यह जीवन नहीं मृत्यु की तात्कालिक विवशता है
घात लगाए तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं --- संभव के जगह शायद "संकेत" होना चाहिए
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है
ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना
नदी के लिए हताशा ही तो है !
नदी को आश्वस्ति है, वो बहेगी.. गहरे-गहरे बहेगी..
जिसका पानी लाल है..--------------------------------- यही चलता रहा तो कितने ही होते रहे हलाल है | भयावह है ये भावी कल्पना |पर यथार्थ यही है | एक कवि का इशारा/सन्देश देने का कर्तव्य निर्वाह हुआ है | हार्दिक बधाई एवं नमन
आहा आदरणीय !
नैराश्य की नदी I लाल रंग- रक्त या खतरा i जगत व्यवहारों के द्वीप i अस्तित्व का संकट I सबसे भयावह नदी की आश्वस्ति I और यह अनिवर्चनीय काव्य पंक्ति -
बन्द करो ढूँढना संभावनाएँ.. सम्मिलन की..
मत पीटो नगाड़े..
थूर दो बाँसुरियों के मुँह..
मान लो.. कि रक्त सने होंठों से चूमा जाना विह्वल प्रेम का पर्याय है..
मांसल सहभोग के पहले की ऐंद्रिक-केलि है
यही हेतु है !
अद्भुत, अनुपम, अजगुत, अविस्मरणीय I
फिर एक जिज्ञासा - तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं i 'संभव' शब्द भटका रहा है आदरणीय i
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online