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नदी, जिसका पानी लाल है (कविता) // --सौरभ

संताप और क्षोभ
इनके मध्य नैराश्य की नदी बहती है, जिसका पानी लाल है.


जगत-व्यवहार उग आये द्वीपों-सा अपनी उपस्थिति जताते हैं
यही तो इस नदी की हताशा है

कि, वह बहुत गहरी नहीं बही अभी
या, नहीं हो पायी ’आत्मरत’ गहरी, कई अर्थों में.
यह तो नैराश्य के नंगेपन को अभी और.. अभी और..

वीभत्स होते देखना चाहती है.

जीवन को निर्णय लेने में ऊहापोह बार-बार तंग करने लगे
तो यह जीवन नहीं मृत्यु की तात्कालिक विवशता है
जिसे जीतना ही है
घात लगाये तेंदुए की तरह..

तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है
कसी मुट्ठियों में चाकू थामे दुराग्रही मतावलम्बियों की तरह !
संताप और क्षोभ के किनारे और बँधते जाते हैं फिर
नैराश्य की नदी और सीमांकित होती जाती है फिर
ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना
नदी के लिए हताशा ही तो है !  

बन्द करो ढूँढना संभावनाएँ.. सम्मिलन की..
मत पीटो नगाड़े..
थूर दो बाँसुरियों के मुँह..
मान लो.. कि रक्त सने होंठों से चूमा जाना विह्वल प्रेम का पर्याय है..

मांसल सहभोग के पहले की ऐंद्रिक-केलि है
यही हेतु है !

जगत के शामियाने में नैराश्य का कैबरे हो रहा है
जिसका मंच संताप और क्षोभ के उद्भावों ने सजाया है
ऐंद्रिकता का आह्वान है--  बाढ़ !

...जगत-व्यवहारों के द्वीपों को आप्लावित कर मिटाना है...

नदी को आश्वस्ति है
वो बहेगी.. गहरे-गहरे बहेगी..  
जिसका पानी लाल है..

******************
-सौरभ
******************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Santlal Karun on September 15, 2014 at 9:21pm

आदरणीय पाण्डेय जी ,

कदाचित इस मंच पर इतनी प्रबल शब्द-साधना तथा सघन अर्थछवि की कविता पहली बार पढ़ रहा हूँ | यह कविता शिल्प और संवेदना दोनों की ताजगी लिये हुए है और कुछ-कुछ धूमिल की तदात्मकता और उत्ताप भी;  किन्तु कविता का तेवर पूरी तरह समय-सापेक्ष है —

“तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं

घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है

कसी मुट्ठियों में चाकू थामे आइएसआइएस मतावलम्बियों की तरह !

संताप और क्षोभ के किनारे और बँधते जाते हैं फिर

नैराश्य की नदी और सीमांकित होती जाती है फिर

ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना

नदी के लिए हताशा ही तो है !”

 

ऐसी रचनात्मक और उदात्त कविता के लिए सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2014 at 6:36pm

आदरणीय सौरभ जी

आपकी प्रतिबद्धता  मुझे शब्दकोष की शरण में ले गयी i वहां 'संभव'     शब्द के जिन अर्थो ने आश्वस्ति दी वह इस प्रकार है - संयोग , समागम,हेतु, कारण , उपयुक्तता, समीचीनता, मुनासिबत i पर फिर एक जिज्ञासा इतने अप्रचलित अर्थो में शब्द का प्रयोग  i मै क्या बड़े बड़े विद्वान भटक सकते है आदरणीय i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 5:52pm

आदरणीय सौरभ भाई ,इंगित मुझे कन्फुज तो करते हैं , पर जो समझा सका वो ये है --

निराशा से उपजी स्थितियां , हल की छटपटाहट में , सही राह न मिलाने पर और भी गलत से गलत होतीं जाती हैं , और आगे चल के अपना लिहाज का मुखौटा भी उतार के अपने गलत फैसले को ही सही समझा के जीने लग जाती है , यही होता है , हो रहा है , सही सोच न पाने के कारण इसी राह को स्वाभाविक सच मान कर जीने के लिए मजबूर हैं |

इन परिस्थियों में वो नदी जो बहुत गहरे नीचे शान्त बहना चाहती है , बह नहीं पा  रही है , और वो चाहती है कि अब व्यर्थकी मिलाने की कोशिशें बंद हों और वास्तविक हल की और बढ़ा जाए , ताकि वो जिस गहराई में बहना चाहती है , बह सकने की स्थितियां पैदा हो सकें |

जिसके लिए नदी तो आश्वस्त है , पर मेरी व्यक्तिगत रूप से आश्व्स्ति बहुत कम है , सड़े गले  अंगों को काटना ज़रूरी हो जाता है , और कौन  सा अंग सड़ा है इसका फैसला हो नहीं पाता | 

                                                         अगर समझ बेसुरी हो तो कृपा कर सुर  में लगा दीजिएगा --- सादर |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 15, 2014 at 2:04pm

हार्दिक धन्यवाद, आ. श्याम नारायण जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 15, 2014 at 1:53pm

कविता पर आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी.

प्रस्तुत कविता के परिदृश्य में संभव का स्थानापन्न संभव नहीं है. संकेत जैसा कोई शब्द तो कत्तई नहीं है. इस शब्द के आलोक में ही प्रस्तुत रचना के भावों को देखें, आदरणीय. निहितार्थ तथा स्थितियाँ अधिक स्पष्ट होंगीं. 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 15, 2014 at 1:36pm

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपका संवेदनशील पाठक प्रस्तुति के निहितार्थ को महसूस कर रहा है, यह रचनाप्रयास की सार्थकता के लिए आश्वस्ति ही है. अनुमोदन हेतु हृदय से धन्यवाद.

वैचारिक कविताओं में शब्दों का चयन अनायास नहीं होता आदरणीय. संभव जैसा शब्द आपके पाठक को यदि सहज नहीं लग रहा है तो उसके अन्यान्य कारण हो सकते हैं. अन्यथा, बहुत सोच कर उस शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका सहज स्थानापन्न संभव नहीं.

एकबार पुनः आपके प्रति आभार कि आपने प्रस्तुति के निहितार्थ के सिरों को पकड़ने की सार्थक कोशिश की है.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 15, 2014 at 1:31pm

आपकी आश्वस्त करती टिप्पणी मुझे मुग्ध कर रही है, आदरणीय आशुतोष भाईजी.

पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत कविता के इंगितों का निहितार्थ आपको संतष्ट कररहा है. नैराश्य का महिमा मण्डन समाज में किन अथवा कैसी परिस्थितियों का जनक होता है इस पहलू को पटल पर लाने का एक प्रयास है.

आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय

Comment by Shyam Narain Verma on September 15, 2014 at 1:20pm
" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. "
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 15, 2014 at 12:44pm

जीवन को निर्णय लेने में ऊहापोह बार-बार तंग करने लगे 
तो यह जीवन नहीं मृत्यु की तात्कालिक विवशता है 

घात लगाए तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं --- संभव के जगह शायद "संकेत" होना चाहिए 
घात लगाने की जगह वह बेलाग होता चला जाता है 

ऐसे में जगत-व्यवहार के द्वीपों का यहाँ-वहाँ जीवित रहना 
नदी के लिए हताशा ही तो है !  

नदी को आश्वस्ति है, वो बहेगी.. गहरे-गहरे बहेगी..  
जिसका पानी लाल है..--------------------------------- यही चलता रहा तो कितने ही होते रहे हलाल है | भयावह है ये भावी कल्पना |पर यथार्थ यही है | एक कवि का इशारा/सन्देश देने का कर्तव्य निर्वाह हुआ है | हार्दिक बधाई एवं नमन 

 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2014 at 12:10pm

आहा आदरणीय  !

नैराश्य की नदी I लाल रंग-  रक्त या  खतरा i जगत व्यवहारों के द्वीप  i अस्तित्व का संकट I  सबसे भयावह नदी की आश्वस्ति I  और यह अनिवर्चनीय काव्य पंक्ति -

बन्द करो ढूँढना संभावनाएँ.. सम्मिलन की..
मत पीटो नगाड़े..
थूर दो बाँसुरियों के मुँह..
मान लो.. कि रक्त सने होंठों से चूमा जाना विह्वल प्रेम का पर्याय है..

मांसल सहभोग के पहले की ऐंद्रिक-केलि है
यही हेतु है !

अद्भुत, अनुपम, अजगुत, अविस्मरणीय I

फिर एक जिज्ञासा -  तेंदुए का बार-बार आना कोई अच्छा संभव नहीं i 'संभव' शब्द भटका रहा है आदरणीय i

 

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