खुद ज़रा गर्दन झुकाकर रूबरू हम हो गए.
बंद करली आँख अपनी गुफ़्तगू में खो गए.
वस्ल की जो थी तमन्ना किस क़दर हावी हुयी.
ख्व़ाब में आयेंगे वो इस जुस्तजू में सो गए.
कौन जाने थी नज़र या वो बला जादूगरी.
देख मुझको बीज दिल में इश्क का वे बो गए.
वायदा उनका मकम्मल आज आने को कहा.
आ रहे वादे मुताविक देखते ही वो गए.
वक़्त लेता करवटें जो आज है कल है नहीं.
चार दिन की चांदनी को अब अँधेरे लो गए.
पोंछने आया नहीं वो अश्क आखों से बहे.
आएगा सैलाब कोई इसलिए हम रो गए.
जिंदगानी थी कठिन जो कट गयी तेरे बिना.
जीस्त का ये बोझ सारा हम अकेले ढो गए.
थी बहुत सारी शिकायत दोस्त ऐ तुझसे मुझे.
दाग दिल के थे अनेकों मुस्कुरा कर धो गए.
**हरिवल्लभ शर्मा दि. 16.09.2014
Comment
आदरणीय Ram Awadh Vishwakarma जी आपका सुझाव ठीक हो सकता है मगर ली की मात्रा 2 हैं वहां मात्रा पतन करना होगा...जबकि बंद कर लीं आँख अपनीं में दोनों आँखों का ही भास होता है...आपके सुझाव का स्वागत.हार्दिक आभार.
आदरणीय बंद करली आँख अपनी गुफ़्तगू में खो गए
एक ही आँख बन्द कर ली या दोनों
मेरी समझ से ऐसा किया जा सकता है।
बंद आँखें करली अपनी गुफतगू में खो गये।
आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब हार्दिक आभार वास्तव में ग़ज़ल का मतला और मक्ता ही ग़ज़ल की जान होते हैं...मेरी को कोशिश को आपने उच्चता प्रदान कर प्रयास पर स्नेह दिया आपका हार्दिक साधुवाद...
आदरणीय हरि भाई,
खुद ज़रा गर्दन झुकाकर रूबरू हम हो गए.
बंद करली आँख अपनी गुफ़्तगू में खो गए.
ऊँचाई को छूती ये पंक्तियाँ सब से अलग है , और पूरी गज़ल की ज़ान है , परम भक्त भगवान का दर्शन कुछ इसी तरह करता होगा।
हृदय से बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी बहुत शुक्रिया.आपने भाव में सहभागी बन ग़ज़ल का मान बढाया आपका हार्दिक आभार
बहुत ही खुबसूरत गजल कही आपने आदरणीय हरी भाईसाहब. हर एक शे'र के भावों में कुछ अपना सा लगा, बस कलम आपकी. बहुत-२ बधाई आपको
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव साहब ग़ज़ल पर आपका स्नेह मिला..हौसला अफजाई हेतु हार्दिक आभार ..सादर
अच्छी गजल हुई है . मान्यवर .
आदरणीय Laxman dhami जी ग़ज़ल पर स्नेह दिया...हार्दिक आभार आपका, कृपया स्नेह बनाये रखें.
वस्ल की जो थी तमन्ना किस क़दर हावी हुयी.
ख्व़ाब में आयेंगे वो इस जुस्तजू में सो गए.
बहुत खूब .....................
आदरणीय भाई हरिवल्लभ जी l इस सुन्दर ग़ज़लके लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें .
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