पटियाला-शांत शहर और दिलवाले लोग (यात्रा वृतांत-१) से आगे …
संगीत-संध्या में धमाल करते-करते और रात्री-भोजन के सुस्वादु व्यंजनों के दौरान भी एक दूसरे की जम कर खिंचाई हुयी और भोजपुरी गाने के बोल पर ठहाके पर ठहाके लगे | आ. बागी जी, आ. सौरभ जी ने कई भोजपुरी-ठुमके वाले गानों की यादें ताजा कीं | मुझे भी Whatsapp पर छाये कई बिहारी जोक्स याद आये जिसे आ. राणा प्रताप जी पूरे मजमून और तफ्सील के साथ पेश किया | पटियाला में भी छपरा, आरा, बलिया छाये हुए थे | इन सब के दौरान रात के १२ बज चुके थे |
आ. योगराज सर ने आ.सौरभ जी को बताया उनके लिए विशेष तौर पर होटल में कमरे बुक किये हुए हैं, उन्हें वही आराम करना है और सोना है | आ.सौरभ जी ने कहा इतनी शानदार हवा चल रही है, मैं तो यहीं आपके निवास–स्थान में ही रहूँगा | पर आ. योगराज जी उन्हें कहा, "नहीं..! आप वहीं जाए, आराम करें, कल सुबह ८ बजे उना के लिए बरात निकल पड़ेगी, जल्दी उठना है, आप होटल में ही जाकर आराम से सोयें, तभी नींद भी सही से पूरी होगी | इसी बीच हमारा भी जिक्र हुआ कि कहाँ ठहराया जाए | हमारे लिए घर और होटल दोनों विकल्प रखे गए थे । पर वेदिका २४ ता. से यात्रा कर रही थी तो हमने आराम से पूरी नींद लेने और सुबह जल्दी तैयार होने के लिए होटल में रुकना सही समझा | इस तरह हम पांच लोग आ. योगराज सर द्वारा खास हमारे लिए प्रबंध किये गए जायलो में अपने साजो सामान के साथ होटल के लिए निकल पड़े | और १० मिनट में होटल आशियाना पहुँच गए | रात के करीब १ से २ के बीच में हमारी आँख लग गयी | सुबह ६ बजे के करीब हम जाग चुके थे और फटाफट तैयार हो गए | ७ बजे के करीब हमें चाय पीने की इच्छा हुयी | पता चला बाकी लोग चाय पीने पास ही कहीं गए हुए हैं | वेदिका ने आ. सौरभ जी को फोन मिलाया तो वो हमारे लिए तुरंत मठरी साथ में ले के आ गए | पर हमें तो चाय पीनी थी, दुबारा हमने सौरभ जी को परेशान किया और फिर हम तीनों चाय पीने बाहर गए | चाय पीने के दौरान सौरभ जी ने बताया कि पंजाब में लोग खालिश दूध की कम चाय-पत्ती और ढेर सारी चीनी वाली मीठी, कम उबली हुयी चाय पीते हैं | यहाँ कड़क चाय नहीं मिलेगी | और चाय वाले भैया को उन्होंने पहले ही निर्देश दे दिया, चीनी कम डालना और जरा ज्यादा उबालना | इसी बीच मुझे दरवाजे पे कुछ पंजाबी में लिखा हुआ दिखा, मैंने पूछा तो आ. सौरभ जी कहा लिखा है, "७ रूपये की चाय" | साथ में सवाल दाग दिया, "बताओ इसे कौन सी लिपि कहते है ?" मुझे सिर्फ गुरु ही याद आ रहा था इसलिए मैंने बिना सोचे फटाक से गुरुवाणी बोल दिया, तो उन्होंने बताया 50% पास हुयी हो, इसे गुरुमुखी लिपि कहते हैं |
सुबह के ८ बज चुके थे | बारात में शामिल होने के लिए जायलो होटल के बाहर आकर खडी हो चुकी थी | हम अपने बारात में पहने जाने वाले कपड़ो के साथ सवार हो गए | उधर पूरी बारात योगराज सर के निवास–स्थान से भी निकल चुकी थी | सौरभ जी और बागी जी उनसे फोन पर संपर्क बनाये हुए थे |
बारात पटियाला से उना जा रही थी | १५६ किलोमीटर की दुरी हमें तय करनी थी, जो २:३० से ३ घंटे में पूरी होनी थी | हमारा सफ़र शुरू हो चुका था | आ. सौरभ जी ड्राईवर भइया से परिचय ले रहे थे | उसने अपने दो नाम बताये । पर मुझे उनका प्यार से पुकारे जानेवाला नाम याद रह गया है, “ लवली सिंह “ । उन्होंने गाडी में पंजाबी गाने चला रखे थे | हम भी उसका आनंद उठा रहे थे | पंजाब का अपना ही सौन्दर्य है, लहलहाते खेत, खुबसूरत बाँध और शांत प्रसन्नचित जन समुदाय | इतना शांत शहर मैंने कभी नहीं देखा था | जैसा मैंने पटियाला को महसूस किया | किसी को कोई जल्दी नहीं, चेहरे पर कोई तनाव नहीं | महानगर में रहनेवाले और तनावयुक्त जीवन जीने वाले हम जैसे लोगों के लिए आश्चर्यजनक बात थी | हम अभी पंजाब में थे और हरियाली के बीच हर २ से ३ किलोमीटर पर सफ़ेद खुबसूरत वास्तुकारी से निर्मित गुरुद्वारा दिख जाता | और साथ में स्वच्छ क़लकल बहता आँखों को सुकून देता बहता बाधों का पानी | दो तरफ़ा रास्ते के बीच भी चंपा, चमेली, गुलाब, गुड़हल और न जाने कितने खुबसूरत पौधे लगे थे, जो रास्ते को और भी रमणीय बना रहे थे | जिनके नाम आ. सौरभ जी बताते जा रहे थे तो कभी बागी जी | खेतों में धान लगा हुआ था जिनमे बालियाँ आ चुकी थी | आ. राणा जी की तबियत खराब थी जैसा कि उन्होंने बताया तो वो चुप से थे, पर हम चारों पूरी मस्ती कर रहे थे | हाँ, एक बार राणा जी ने लवली जी से डिमांड किया कि गुरुदास मान के गाने चलाओ | लवली जी ने किस पंजाबी गायक के गाने चला रखे थे पता नहीं, पर धुन तो बस थिरकने वाली थी | एक बात मैंने नोटिस की पंजाब में कहीं भी हनुमान जी का मंदिर नहीं था | सिर्फ गुरूद्वारे थे | इस बात को मैंने कहा भी | हमारे यहाँ तो हनुमान जी को ट्रैफिक पुलिस बना के रखा हुआ है, या फिर जमीन हथियानेवाला दादा बना रखा है | दूसरे शहरों में हर मोड़ पर हनुमान जी दिख जायेंगे या फिर कोई मज़ार | और इन्हें किस लिए खड़ा किया जाता है आप सबको खूब पता है |
हम पटियाला से आगे निकल कर सरहिंद पहुँच गए थे | वहाँ से हमें रूपनगर फिर आनंदपुर साहिब फिर नंगल और तब उना पहुँचना था | ऐसा हमें लवली जी ने बताया कि आनंदपुर साहिब आ गया | आनंदपुर का नाम सुनते ही आ. सौरभ जी ने कहा गुरुद्वारा मुझे देखना है | इंदिरा गाँधी और भिंडरवाला के बीच इसी गुरुद्वारे में राजनैतिक समझौता हुआ था | इस गुरुद्वारे का धर्मिक महत्व के साथ राजनैतिक महत्त्व भी है | उनका उतावलापन और किसी बच्चे जैसी उत्सुकता देख कर लवली सिंह ने सलाह दी, "सर जी, रात को लौटते वक्त देख लेना अभी बहुत देर हो जायेगी, बारात में समय पर पहुँचना है | और ये तो २४ घंटे खुला रहता है, कोई परेशानी नहीं है |"
इस तरह रात को वापस लौटने के दौरान आनंदपुर साहिब गुरुद्वारा दर्शन का कार्यक्रम तय हो गया | रास्ते में हमें गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब मिला था | सबका विचार हुआ यहाँ चल कर माथा टेक के आना चाहिए | इसका कारण था गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब का हृदय दहला देनेवाला इतिहास | सरहिंद ऐतिहासिक और धार्मिंक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है | आ. सौरभ जी ने बताया यहीं मुगलों ने गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों पुत्रों को, जिनमें एक सात साल तथा दूसरे ९ साल के थे, जिन्दा दीवार में चुनवा के उनके सर को खास तरह चक्र से क्षत-विक्षत कर दिया गया था | उनका शहीदी दिवस आज भी यहाँ लोग पूरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं | सुन कर मन बहुत दुखी हो गया | अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए सिक्खों ने कितना बलिदान दिया है ! पंजाब आकर फिर से सब भान होने लगा | अपना देश हमेशा इनका ऋणी रहेगा | मैं वीरों की धरती के प्रति नतमस्तक थी | हमने अंदर जाकर अपनी मौन श्रद्धांजली दी और वापस आ गए |
हम ८ बजे के निकले हुए थे बारात वाली बस अभी हमें मिली नहीं थी | किसी ढाबे पर एक साथ होने की बात हुयी थी पर शायद हम लेट हो गए थे और दोपहर के १ बजने वाले थे | एक ढाबा देख कर गाड़ी रोकी गयी | हमने वहाँ प्याज के पराठे, सब्जी, दही खायी और चाय पी | चाय कच्ची थी जिसे सौरभ जी नहीं पी पाए और अपनी चाय बागी जी के ग्लास में उड़ेल दिया | आ. बागी जी ने चुटकी ली, "लगता है भेड़ के दूध की चाय बनाके लाया है | वैसा ही स्वाद आ रहा है |" हम सब हँसने लगे | राणा जी का मौन अभी तक के सफ़र में जारी था, पर बागी जी की लघुकथा जैसी चुटकियाँ व हाजिरजवाबी गुदगुदा जाती तो सौरभ जी का चीजों के प्रति बच्चों जैसी उत्सुकता और चेहरे पर प्रसन्नता हम सभी में भी उत्साह दुगना कर जाती | हम बात करते रहे रास्तो के बारे में, सतलुज और भाखड़ा-नगंल बांधो के बारे में | लवली जी हमारे लिए ड्राईवर के साथ–साथ गाइड भी बने हुए थे | इस बीच बारात वाली बस मिल गयी जिसमें दुल्हे बने ऋषि प्रभाकर जी के साथ पूरी बारात साथ थी | आनंदपुर साहिब पहुँचने के पहले रास्ते में भव्य गेट दिखा, जो गुरुद्वारा के वास्तु के आधार पर ही सफ़ेद पत्थरों से निर्मित था | इतना खुबसूरत था की बस मैं देखते रह गयी | अपने मोबाइल से कोई फोटो भी नहीं ले पायी | हम नंगल में प्रवेश कर चुके थे हमारी गाडी सतलज नदी पे बने बाँध के पास से गुजर रही थी, बहुत ही मनोरम दृश्य था जिसे मैं सिर्फ अपने आँखों में भर लेना चाह रही थी |
हम उना पहुच गए थे | पंजाब पीछे छूट गया था | अब हम हिमाचल में थे | वातावरण बदल रहा था, हरियाली कम हो रही थी | हम ऊँचाई की ओर बढ़ रहे थे, रास्ते अब चिकने और चौड़े होने के बजाये थोड़े संकरे और पथरीले होने लगे थे और कई मोड़ आने लगे थे | रास्ते में मुझे एक पत्थर पर कुछ लिखा मिला जिसे मैंने जोर से पढ़ा | ये सुन कर सौरभ जी हँस पड़े, कहा, "ये किसी के घर की ओर जाने का संकेत है | साथ में बताने लगे कि हिमाचल के कई सारस्वत बाह्मण दक्षिण भारत में ६००-७०० साल पहले जाकर बस गए हैं | इसलिए वहाँ ये लोग उनके बीच बहुत ही सुंदर और गोरे-गोरे दीखते हैं, जो यहाँ हिमाचल में भी उतने गोरे नहीं हैं |
बारात वाली बस हमें रुकी दिखाई दी और सारे बाराती भी बस से बाहर आ चुके थे | हमारी भी गाडी रुक गयी, पता चला हम दुल्हन के गाँव ओयल आ गए थे | पास में सजी–धजी घोड़ी खड़ी थी | रस्में चल रही थी | बच्चियाँ जिन्होंने हमें खूब प्यार दिया था और संगीत में जम कर डांस किया और करवाया था, हमें देखते ही सब दौड़ कर आईं और गले मिलीं | उनकी निश्छलता और उनका प्यार मन को कहीं छू गया | पास में वधु का घर था और जयमाला के लिए लगाया का विशाल पंडाल, जहाँ कुर्सियां लगी थीं | खाने-पीने का पूरा इंतजाम | हम थिरकते–ठुमकते वहाँ पहुँच गए | खूब स्वागत–सत्कार हुआ |
पूर्वी राज्यों में जिस प्रकार शादियों में अहमकाना हरकते होती हैं, वैसा कुछ नहीं था | न इधर लड़केवाले ऐंठ रहे थे और न ही लड़की वाले परेशान हो रहे थे कि पता नहीं लड़के वाले क्या डिमांड कर दें और कैसे उसकी पूर्ति होगी | दोनों परिवारों के बीच बहुत ही सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बना हुआ था जिसे देख मुझे इतना सुकून मिल रहा था की क्या बताऊँ |
हमें कपडे बदलने थे तो बच्चियों हमें वधु के घर ले के गयी | वहाँ हम तैयार हुए पर हमसे गलती ये हो गयी कि बिना किसी को बताये और पूछे चले गए थे | इस बीच जब हम आये तो जयमाला की रस्म हो चुकी थी | सभी लोग खाना खा रहे थे | फिर पता चला खाना खा कर हमें भी लौट जाना है | रात में रुक कर शादी नहीं देखनी | हमारा चेहरा देखने लायक था | जब हम आये तो हमने खाया | सामान लाने गए | प्यारी सी वधु से कमरे में मिले | वो बहुत सुंदर लग रही थी | हँसने पर गालों पर डिम्पल पड़ रहे थे | आ. प्रभाकर सर जी की बेटी ऋतु ने हमारा उनसे परिचय करवाया | बड़े प्यार और सहजता से मिलीं | हमने बधाई दी और दूसरे कमरे में आ गए जहाँ हमने अपने कपडे रखे थे | मैंने शादी वाले कपडे बदलकर रास्ते के लिए हलके कपडे वापस पहन लिए | हमसे बेवकूफी हो चुकी थी | जयमाला देख नहीं पाए थे, मन में मलाल रह गया था |
क्रमशः
Comment
वाह वाह महिमा जी ...आप सभी सौभाग्यशाली हैं ...बधाई आनंद आ गया पढ़कर ..इस बहाने हम सब ने भी आदरणीय संपादक महोदय के आयोजन में सहभागिता कर ली ...सुन्दर लिखा है !!
वाह- वाह प्रिय महिमा मजा आ गया संस्मरण पढ़कर व् चित्र देख कर दुल्हनिया तो वड्डी सोणी लाये छांटकर आ० योगराज जी ,घर में उजाला ही उजाला ,मेरा आशीर्वाद पंहुचे वर वधु तक | आप लोगों ने खूब धमाल किया ,पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा है आगे भी पल पल की जानकारी देती रहो :) :)))))
// भले ही पंजाब में दूध ज़्यादा डाला जाता है लेकिन यहाँ भी लोग आमतौर पर बेहद कड़क चाय पीने के आदी हैं. यहाँ कहा जाता है "मिट्ठा पत्ती ठोक के - पाणी रोक के" यानि चीनी और चाय की पत्ती दबाकर डालो मगर पानी कम. लेकिन समय के साथ लोग अंग्रेज़ हो रहे हैं और चाय के नाम पर उबला हुआ पानी पीने लगे हैं.... वर्ना अगर किसी लोकल चाय वाले को बोल दें कि "बना दे भाई २०० मील वाली चाय" तो क्या मज़ाल आपको अगले छ: आठ घंटे चाय की तलब लग जाये। //
सही याद दिलायी आपने आदरणीय योगराजभाईजी.
हमें स्मरण है, हम बचपन में अपने पिताजी के साथ लम्बी दूरी की यात्राओं पर सपरिवार निकलते तो अपने खाने-पीने के ठिकाने नेशनल-हाइवे के किनारे बने ’पंजाबी ढाबे’ ही हुआ करते थे. ये ढाबे तन्दूरी-तड़कादाल-खीर के लिए उस क्षेत्र में ’वर्ल्ड फेमस’ हुआ करते थे.
यहाँ पंजाब से आये ट्रकों के ड्राइवरसाहब लोग इसी अंदाज़ में चाय मांगते, जो ’दो सौ मील’ की चाय से लेकर ’पाँच सौ मील’ की चाय हुआ करती थी. जब मालूम हुआ कि इनका अर्थ क्या होता है तो महसूस हुआ था कि उन चाय का स्वाद वाकई ग़ज़ब का हुआ करता था. बाद में हम अपने घरों में भी ऐसी चाय की अपेक्षा करते जो ’लीफी’ चाय-पत्तियों से संभव थी ही नहीं.
//दोनों आलेखों में महिमा जी का "घोरा पराक-पराक दौरा" था. उसकी लगाम इस खादिम ने ही "पकरी" थी बाद में //
आदरणीय योगराजभाईसाहबजी, ऐसी कोई ’पकरा-पकरी’ आपका वैधानिक अधिकार है, तो पदेन कर्तव्य भी है. ... तभी तो, आदरणीय, आप के हाथ में वो ’बेटन’ है जो आप चाह कर भी ’फ़ॉरवर्ड’ नहीं कर सकते ! और सर्वोपरि, पूरी टीम को जीतते देखना आपका दायित्व है.. !! .. . :-)))
जय हो..
vaah पढ़ के लगा हम भी शामिल है ...शुक्रिया इस रोमांचक वितांत पढ़ाने के लिय आपका .....
आ0 सौरभ भाई जी, भले ही पंजाब में दूध ज़्यादा डाला जाता है लेकिन यहाँ भी लोग आमतौर पर बेहद कड़क चाय पीने के आदी हैं. यहाँ कहा जाता है "मिट्ठा पत्ती ठोक के - पाणी रोक के" यानि चीनी और चाय की पत्ती दबाकर डालो मगर पानी कम. लेकिन समय के साथ लोग अंग्रेज़ हो रहे हैं और चाय के नाम पर उबला हुआ पानी पीने लगे हैं. चाय की दुकान वाले (खासकर गैर पंजाबी) वैसे भी बाबू लोगों को देखकर खुद ही बेहद हलकी चाय बना देते हैं. वर्ना अगर किसी लोकल चाय वाले को बोल दें कि "बना दे भाई २०० मील वाली चाय" तो क्या मज़ाल आपको अगले छ: आठ घंटे चाय की तलब लग जाये। कपों के हिसाब से चाय बनाने का चलन आज से २०-२५ साल पहले तक बहुत कम था, लोगबाग पाव, डेढ़ पाव या आधा किलो दूध में पत्ती डालकर चाय बनाने को कहा करते थे.
//साथ में बताने लगे कि हिमाचल के कई सारस्वत बाह्मण दक्षिण भारत में ६००-७०० साल पहले जाकर बस गए हैं | इसलिए वहाँ ये लोग उनके बीच बहुत ही सुंदर और गोरे-गोरे दीखते हैं, जो यहाँ हिमाचल में भी उतने गोरे नहीं हैं |//
महिमा जी, अपनी बहू तो गोरी-चिट्टी है न ? बाक़ियों से हमें क्या मतलब ?
ज़िल्ले-इलाही सौरभ भाई जी,
//अपने बीच हुए कॉमा-फुलस्टॉप, डैश-कॉलोन तक को आपने संजोया है.. ग़ज़ब !//
माबदौलत !! इसका थोड़ा सा शरफ इस नाचीज़ को भी हासिल है, वर्ना दोनों आलेखों में महिमा जी का "घोरा पराक-पराक दौरा" था. उसकी लगाम इस खादिम ने ही "पकरी" थी बाद में.
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