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दियालिया उजास दे (नवगीत) // --सौरभ

आँक दूँ ललाट पर
मैं चुम्बनों के दीप, आ..
रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे..

संयमी बना रहा
ये मौन भी विचित्र है
शब्द-शब्द पी
करे निनाद-ब्रह्म का वरण..  
कोंपलों में बद्ध क्यों
सुगंध देह से उमग ?
आ, सहज उघार दूँ
मैं विन्दु-विन्दु
आवरण..

रात्रि की उठान, किन्तु

स्वप्न शांत-थिर रहें..
भंगिमा से
रोम-रोम
तोष का विभास दे ! 

रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे.. .

श्रम सधे,
समर्थ हो..
प्रयास की लहर-लहर..
अर्थ स्वेद-धार का
गहन मगर विकर्म-सा !
ज्योति-शृंखला बले
शिरा-शिरा
सिहर-सिहर..
कम्पनों से व्यक्त हो
प्रगाढ़ प्रेम
नर्म-सा !

लालिमा प्रभात की
वियोग की कथा रचे
किन्तु, ’मावसी निशा
सुहाग का
समास दे ! 

रात भर विभोर तू
दियालिया उजास दे.. .
*********************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 7, 2014 at 1:35pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, इस उत्फुल्ल करती टिप्पणी के लिए आपका सादर धन्यवाद. लिखना सार्थक हुआ.
सादर

Comment by Chhaya Shukla on October 7, 2014 at 1:12pm

आदरणीय भाई सौरभ जी ,
अति सुंदर प्रवाहमयी रचना जितनी बार पढूं नई लग रही है 
सादर ढेरों बधाई आपको भविष्य में भी ऐसे काव्य की प्रतीक्षा रहेगी 
प्रिय पंक्ति - 
संयमी बना रहा 
ये मौन भी विचित्र है 
शब्द-शब्द पी 
करे निनाद-ब्रह्म का वरण..  
कोंपलों में बद्ध क्यों 
सुगंध देह से उमग ?
आ, सहज उघार दूँ 
मैं विन्दु-विन्दु 
आवरण.. 

नमन ! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 7, 2014 at 12:39pm

आप द्वारा मिले अनुमोदन में कितनी आत्मीयता है आदरणीया राजेश कुमारीजी.
सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 7, 2014 at 12:31pm

भाई नीरज जी, आपमें एक विलक्षण रचनाकार मौज़ूद है. उस रचनाकार का इतने आत्मीय ढंग से शब्दार्थ पूछना भला लगा. :-))

भाईजी, दियाली कच्ची मिट्टी के दीपक को कहते हैं जो अक्सर चौरे आदि पर जलायी जाती है. उसीसे निकलते मद्धिम प्रकाश को हमने ’दियालिया उजास’ कहा है.
लौ रूप में जलने को बलना कहते हैं. दीया, दीप, दीपक आदि लौ रूप में ही जलते हैं.
मावस अमावस का काव्यात्मक रूप है. आप गीतों में शायद उतना रस नहीं लेते. वर्ना बच्चन से लेकर आजतक के गीतकारों ने इस शब्द का विपुल प्रयोग किया है.

भाईजी, रचनाकर्म मात्र प्रेषण नहीं है बल्कि सार्थक और सटीक प्रेषण भी है. और ऐसा तभी हो सकता है जब उचित और मनोहारी शब्दों का विधाजन्य प्रयोग हो. ऐसा केवल मैं ही हीं मानता. इसतरह के शब्द-प्रयोग में आरोपण नहीं होता. साथ ही, यह भी उतना ही आवश्यक है, कि पाठक अखबारी भाषा के अलावे रचना-भाषा में रस ले. है न ?


शुभेच्छाएँ, भाईजी.. सहयोग बना रहे..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 7, 2014 at 12:01pm

भाई केवल प्रसादजी.. आपको प्रयास रुचिकर लगा इस हेतु हार्दिक धन्यवाद. सहयोग और समर्थन बना रहे.

Comment by Satyanarayan Singh on October 7, 2014 at 11:58am

परम आ. सौरभ जी सादर

  शब्दों और भावों का अनूठा संगम तथा गजब का गीत प्रवाह एवं सुन्दर उपमान……. इस मोहक नवगीत हेतु बधाई स्वीकार करें आदरणीय …… 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 7, 2014 at 10:42am

आँक दूँ ललाट पर 
मैं चुम्बनों के दीप, आ.. 
रात भर विभोर तू 
दियालिया उजास दे..  


रात्रि की उठान, किन्तु

स्वप्न शांत-थिर रहें.. 
भंगिमा से 
रोम-रोम 
तोष का विभास दे ! 

रात भर विभोर तू 
दियालिया उजास दे.. .

श्रम सधे, 
समर्थ हो.. 
प्रयास की लहर-लहर.. 
अर्थ स्वेद-धार का 
गहन मगर विकर्म-सा ! 
ज्योति-शृंखला बले |

लालिमा प्रभात की 
वियोग की कथा रचे 
किन्तु, ’मावसी निशा 
सुहाग का 
समास दे ! 

रात भर विभोर तू 
दियालिया उजास दे.. .  दीपावली से पूर्व यह भापूर्ण विशिष्ठ शैली में वह भी बिम्बों के जरिये पहला नवगीत पढने के मिला है, जिसको बार बार पढ़ गुणने के लिए कॉपी करने को विवश हूँ | आपको हार्दिक बधाई देते जितनी प्रशंसा की जाए का ही होगी | सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 6, 2014 at 5:53pm

संयमी बना रहा 
ये मौन भी विचित्र है 
शब्द-शब्द पी 
करे निनाद-ब्रह्म का वरण..  
कोंपलों में बद्ध क्यों 
सुगंध देह से उमग ?
आ, सहज उघार दूँ 
मैं विन्दु-विन्दु 
आवरण----- अद्भुत ...शब्द चातुर्य से बिम्बों के माध्यम से मन के भावों को किस सहजता से कह देना आपसे सीखे कोई ,शुरू से अंत तक खूबसूरत प्रवाह इस नव गीत की खूबसूरती में चार चाँद लगा रहा है बस दिल की गहराइयों से वाह वाह निकल रहा है ,आपको इस गीत के रूप में दिवाली के खूबसूरत आगाज़ के लिए ढेरों बधाई आ० सौरभ जी| 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 6, 2014 at 4:21pm

आदरणीया कल्पनाजी, आप जैसी विदुषी रचनाकार से मिला अनुमोदन रचनाकर्म के प्रति आत्मीय संतोष का कारण हो रहा है.
सादर आभार आदरणीया


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 6, 2014 at 4:18pm

अपने अग्रज से अधिक इस मंच के सचेत प्रधान सम्पादक से किसी रचना पर ऐसी टिप्पणी पाना उस रचना का सौभाग्य ही हुआ करता है, आदरणीय योगराजभाईसाहब. आपका औदार्य सतत बना रहे.
मुक्त कण्ठ से मिली प्रशंसा विभोर कर रही है. 
सादर आभार आदरणीय

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