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देखा   असूल    मैंने    अजब   सर जमीन पर

जो    ठोकरें     लगाते   रहे    उम्र    भर    मुझे

शैतानियत ने किस कदर चोला बदल लिया

वे   ही   जनाजे    में    मेरी    कन्धा   लगा  रहे  I

 

चप्पल न  थी   नसीब   छाले   पाँव   में पड़े

मै   जिन्दगी  में   यूँ   ही   दर्दमंद  हो चला

अल्लाह   तूने   मौत   दी   तेरे   बड़े  करम

इक बार  आठ  पाँव   की सवारी तो मिली  I

 

मैंने    हयात   में    न    कभी    हार   थी  मानी

हर  वक्त    रहे    चार    छह    मेरे    दबाव  में

यह  सिलसिला जारी रहा मरने का बाद भी

आराम से  दो-चार   पर  तब    भी    सवार था I

 

मै पांच   फिट  जमीन    से    ऊंचा    उठा    रहा

कुछ दूर  चला   इस   तरह मरने   के बाद भी

इत  राना  जिन्दगी का  काम प   र नहीं आया

आखिर में वही पांच फिट नीचे जगह मिली I

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:23pm

आदरणीय खुर्शीद जी

आपका बहुत आभार  i पर मै स्वयं आपका फेन हूँ i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:22pm

जीतेंद्र जी

बहुत बहुत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:21pm

विजय सर

आपका स्नेह  मेरा संबल है i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:20pm

निकोर जी

आपका आशेष बहुत मायने रखता है मेरे लिए  i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:19pm

मीना जी

आपका ह्रदय-तल से आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:18pm

महनीया  राजेश कुमारी जी

आप कोटि-कोटि आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 1:16pm

नरेन्द्र जी आपका आभार  i

Comment by khursheed khairadi on October 13, 2014 at 10:44pm

आदरणीय गोपालनारायण जी सादर प्रणाम ,छुट्टियों में गाँव चले जाने के कारण मंच से काफ़ी समय अनुपस्थित रहा|इस बीच कई अच्छे आयोजन हुये |मैं इन आयोजनों का हिस्सा बनने का सोभाग्य गवाँ बैठा |आपकी रचना ने जीवन के उस सनातन चिंतन को समक्ष रखा है ,जो बोद्ध और जैन दर्शन की आधारशिला है |सादर अभिनन्दन 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 12, 2014 at 11:28pm

सच! यही जीवन का सबसे बड़ा  सच है. समय कमजोर भी बहुत होता है तो कभी बहुत बलवान भी. हार्दिक बधाई आदरणीय डा.गोपाल जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 12, 2014 at 1:46pm
सबकुछ परिवर्तनशील है , और यह बहुत अच्छा है , नहीं तो चंगेज़ और नादिर शाह अभी भी लूट ही रहे होते , आप कह सकते हैं कि उनकें उत्तराधिकारी तो लूट ही रहे हैं , पर परिवर्तन तो वहां भी है , काम से काम तलवार चला के तो नहीं लूट रहे हैं . परिवर्तन को स्वीकार तो करना ही पड़ता है , हमने भी करें परिवर्तन तो होता ही है।
व्यथा पर व्यंग सराहनीय हैं , बहुत बहुत बधाई आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी। सादर

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