देखा असूल मैंने अजब सर जमीन पर
जो ठोकरें लगाते रहे उम्र भर मुझे
शैतानियत ने किस कदर चोला बदल लिया
वे ही जनाजे में मेरी कन्धा लगा रहे I
चप्पल न थी नसीब छाले पाँव में पड़े
मै जिन्दगी में यूँ ही दर्दमंद हो चला
अल्लाह तूने मौत दी तेरे बड़े करम
इक बार आठ पाँव की सवारी तो मिली I
मैंने हयात में न कभी हार थी मानी
हर वक्त रहे चार छह मेरे दबाव में
यह सिलसिला जारी रहा मरने का बाद भी
आराम से दो-चार पर तब भी सवार था I
मै पांच फिट जमीन से ऊंचा उठा रहा
कुछ दूर चला इस तरह मरने के बाद भी
इत राना जिन्दगी का काम प र नहीं आया
आखिर में वही पांच फिट नीचे जगह मिली I
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय खुर्शीद जी
आपका बहुत आभार i पर मै स्वयं आपका फेन हूँ i
जीतेंद्र जी
बहुत बहुत आभार i
विजय सर
आपका स्नेह मेरा संबल है i सादर i
निकोर जी
आपका आशेष बहुत मायने रखता है मेरे लिए i सादर i
मीना जी
आपका ह्रदय-तल से आभार i
महनीया राजेश कुमारी जी
आप कोटि-कोटि आभार i
नरेन्द्र जी आपका आभार i
आदरणीय गोपालनारायण जी सादर प्रणाम ,छुट्टियों में गाँव चले जाने के कारण मंच से काफ़ी समय अनुपस्थित रहा|इस बीच कई अच्छे आयोजन हुये |मैं इन आयोजनों का हिस्सा बनने का सोभाग्य गवाँ बैठा |आपकी रचना ने जीवन के उस सनातन चिंतन को समक्ष रखा है ,जो बोद्ध और जैन दर्शन की आधारशिला है |सादर अभिनन्दन
सच! यही जीवन का सबसे बड़ा सच है. समय कमजोर भी बहुत होता है तो कभी बहुत बलवान भी. हार्दिक बधाई आदरणीय डा.गोपाल जी
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