प्रेम अगन करती सदा, चेतन का विस्तार
रोम-रोम तप भाव-तन, धरे नवल शृंगार
मैं-तुम भेद-विभेद हैं, मायावी मद भ्राम
द्वैत विलित अद्वैत सत, चिदानन्द अविराम
सूक्ष्म धार ले स्थूल तन, पराश्रव्य हो श्रव्य
गुह्य सहज प्रत्यक्ष हो, सधें नियत मंतव्य
डॉ० प्राची
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुन्दर सार्थक दोहे हार्दिक बधाई ,बहुत दिनों बाद आपकी रचना आई ओबिओ पर बहुत ख़ुशी लाई .
सुंदर अर्थपूर्ण दोहे,एक कोशिश आप के दोहों को अपने शब्दों में कहने की
चेतना जल उठी प्रेम की आग से
मैं निखरने लगी तेरे अनुराग से
मैं-तुमसे पृथक कहीं भी नही
आत्मा-जिस्म के बिना कुछ नहीं
आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
दोहों में सन्निहित भावार्थ को आपकी स्वीकार्यता मिली आपकी आभारी हूँ
आ० डॉ० विजय शंकर जी
दोहों को आपके पाठक नें स्वीकार किया और आपसे सराहना मिली
इस उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद
आ० श्याम नारायण वर्मा जी
दोहों पर आपकी सराहना के लिए धन्यवाद
आदरणीया प्राची जी
बहुत दिनों बाद आपकी रचना से साक्षात्कार हुआ i
प्रेमाग्नि का संबल पाकर भावरूपी शरीर नया शृंगार करती है i द्वैत-अद्वैत जब मिल जाते है तभी अविराम सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है i भौतिक शरीर जब सूक्ष्म की ओर बढ़ता है तब श्रव्यातीत श्रव्य हो जाता है i अनाहत नाद सुनायी पड़ता है और गोपनीयता तिरोहित हो जाती है i दोहे है या अध्यात्म की पिटारी i साधुवाद i
सधें नियत मंतव्य "बहुत खूब , तीनों ही दोहे बहुत सुन्दर हैं , बधाई आदर डॉo प्राची सिंह।
बहुत सुंदर दोहें हार्दिक बधाई स्वीकार करें...
सादर..............
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