दिल ये बेईमान सताता है
हर पल भटकना चाहता है
डोरी है प्यार की नाजुक सी
कच्ची है कह धमकाता है
हलकी सी भी हवा मिले तो
हवा के संग बह जाता है
लग जाये ना गैरों की नजर
इस डर से छुपाकर रखा है
मैं लाख सम्हालूँ जतन करूँ
मुझको ही भ्रम दे जाता है
देखूं तो दुनिया फरेबी है
देता चाहतों का हवाला है
रस्मों का बड़ा सा ताला है
जिसे द्वार पे मैंने डाला है
लगती है आँच जमाने की
मैंने आँसुओं से पाला है
सूख रहे दिल के सोते
चाहतों का बोलबाला है
तेरे ही दिल के सागर में
मेरे प्यार का लंगर डाला है
दिल ये बेइमान सताता है
हर पल भटकना चाहता है
@सरिता पन्थी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत सुंदर भाव उभर कर आये, आपकी रचना में. बधाई आदरणीया सरिता जी
कविता आपकी कोशिश बयां करती है i यह कोशिश जारी रहे i कवि धीरे-धीरे निखरता है i
सुंदर गीत रचना के लिए बधाई
सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई |
शुक्रिया सोमेश जी और सुशील जी मुझे आप सभी की संगत में काफी कुछ सिखने को मिलेगा ऐसी मेरी आशा है .
जी शुक्रिया प्रधान सम्पादक जी दिल तो बेईमान है पर दिमाग ने तो उसे लंगर लगाया हुआ है ये कहना चाहती थी शायद अच्छा नही बन पाया पर कोशिश करुँगी की और अच्छा बन सके
गीत कहने का अच्छा प्रयास है. लेकिन जैसा कि आ० सुशील सरना जी ने भी कहा है कि यह प्रयास और बेहतर हो सकता था। बहरहाल, प्रयासरत रहे और अभिनन्दन स्वीकार करें।
आदरणीय सुंदर गीत और भी सुंदर हो सकता था। प्रयास के लिए बधाई और सोमेश जी से सहमत।
आप ने जिस भी अर्थ में लिखा हो पर ये कविता आप के विचारों का विरोध अंत में स्वयं करती है,दिल अगर बेईमान और आवारा है तो तेरे ही दिलके सागर में लंगर कैसे डाल सकता है ,मुझे यहाँ भ्रम लग रहा है ,पूरी रचना विषय के अनुकूल चलती है पर यहीं पर आकर अपने विरुद्ध हो रही है ,पर अगर आप को सही लग रही है तो कोई दिक्कत नहीं
कोशिश के लिए बधाई |
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