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जिंदगी सर को झुका कर रह गई...

हर क़दम पर मात खाकर रह गई,

जिंदगी सर को झुका कर रह गई.

देख लो पहचान मेरी हो जुदा,

एक खुदसर में समाकर रह गई.

होगी मलिका सल्तनत की वो मगर,

मेरी खातिर कसमसा कर रह गई.

रूह मुझसे जाँ छुड़ाने के लिए,

हर दफा बस छटपटा कर रह गई.

सोजे दिल पानी से भी ना बुझ सके,

आंख भी आंसू बहा कर रह गई.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 5, 2014 at 8:58pm

रूह मुझसे जाँ छुड़ाने के लिए,

हर दफा बस छटपटा कर रह गई.---क्या कहने 

बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई इमरान भाई जी बहुत बहुत बधाई 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 5, 2014 at 3:40pm

//रूह मुझसे जाँ छुड़ाने के लिए,
हर दफा बस छटपटा कर रह गई.//

वाह वाह, कमाल की ग़ज़लगोई करते है इमरान भाई, सभी अशआर अच्छे लगें, बधाई स्वीकार करें।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2014 at 1:08pm

इमरान भाई

आपने बहुत बेहतरीन कहा i बधाई i

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 5, 2014 at 10:54am
वाह बहुत सुन्दर वाह
Comment by Hari Prakash Dubey on December 4, 2014 at 11:37pm

शानदार प्रस्तुति इमरान भाई ,बहुत बहुत बधाई !

Comment by somesh kumar on December 4, 2014 at 10:40pm

दुनिया हर बार दीवार उठाती आई /मोहब्बत हर बार दीवार गिराती आई | सुंदर गज़ल तीसरे और अंतिम शे'र विशेष पसंद आए |

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