बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
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अपनी मिठास पे उसे बेहद गरूर था
समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था
मृगया में लिप्त शेर को देखा जरूर था
बकरी के खानदान का इतना कसूर था
दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला
दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था
शब्दों में विश्व जीत के शब्दों में छुप गया
लगता था जग को वीर जो शब्दों का शूर था
हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था
शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल
दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया गोपाल नारायन जी
आपका आशीर्वाद मिला तो शे’र सार्थक हो गया। तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय योगराज जी
बहुत बहुत धन्यवाद somesh kumar जी
धन्यवाद ajay sharma जी
बहुत बहुत शुक्रिया JAWAHAR LAL जी
वाह बहुत खूबसूरत अश'आर हैं आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, बधाई स्वीकार है।
हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था
शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल
दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था
-----बहुत बहुत शानदार ग़ज़ल लिखी है आ० धर्मेन्द्र जी बहुत बहुत बधाई
आदरणीय भाई धर्मंद्र जी इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीय धर्मेंद्र जी इस ग़ज़ल के हर शेर के लिये दिल से बधाई प्रेषित है
शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल
दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था
बहुत खूब।
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