कुछ लिखना चाहता हूँ
पर सोचता हूँ क्या लिखूं
कलम जब होती है हाथ में
दिल करता है कुछ सांय-सांय
सोचता हूँ
पुण्य लिखूं
सेवा लिखूं, सम्मान लिखू
हाथ से फिसलता आसमान लिखूं
सत्य लिखूं , प्रेम लिखूं
ममता लिखूं , मौन-व्यापार लिखूं
किसी उजड़ी बस्ती का हाहाकार लिखूं
पाप लिखूं, शाप लिखूं
मन का परिमाप लिखूं
भूख लिखूं , स्वार्थ लिखूं
टी वी से झांकता
आधुनिक परमार्थ लिखूं
थाना लिखूं, जेल लिखूं
खूनी राजनीति के सौ-सौ खेल लिखूं
गीत लिखूं ,प्रीति लिखूं
कवि का संभाव्य लिखूं
सांवले क्षितिज पर
काल का काव्य लिखूं
पोथी लिखूं, भेद लिखूं
पाश्चाताप खेद लिखूं
या नए युग का
कोई एक वेद लिखूं
मै अकेला नहीं लिखता
एक बड़ी जमात है
लिख रहा है युगों से
लिखेगा युगो तक
पर आज मेरा और सबका
हाथ कांपता है
जब कोई कहता है
हाँ, लिखो
आदमी !
(मौलिक/अप्रकाशित )
Comment
आपने सोचते सोचते सब कुछ लिख दिया ...वाह शानदार अभिव्यक्ति ,रचना के अंतिम चरण ने तो रचना को बहुत ऊँचाइयाँ बख्शी हैं
बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय.
मन में तूफान थे मेरे सैकड़ों
बस कागजों से किनारा मिल ना सका
मैं दबाए हुए था सहस्त्र रश्मियाँ
बस मनचाहा सितारा मिल ना सका
हृदय की धरा पे थे कई पुष्प-बीज
पर सुगन्धियों भर पुष्प खिल ना सका
जो भी आप ने लिखा वो सभी लिखने वालों की मनोव्यथा है आदरणीय
मै अकेला नहीं लिखता
एक बड़ी जमात है
लिख रहा है युगों से
लिखेगा युगो तक
पर आज मेरा और सबका
हाथ कांपता है
जब कोई कहता है
हाँ, लिखो
आदमी !
नमन इस रचना के लिए और बधाई आपको
bahut sunder sir----------congratulation.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपकी कलमकारी को नमन है जिस तरह की रचना आप जैसे अनुभवी व्यक्ति के कलम से ही निकल सकती है यूँ लगता है सारे विषयों को आपने बस एक पन्नें में समेट दिया है। सादर बधाई आपको।
सर..मैं भी कलम दांतों में दबाये सोचती हूँ क्या लिखूँ ...................अद्भुत रचना | सादर बधाई
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