स्पर्श
कभी-कभी तुम्हारे स्पर्श मात्र से
जो सिहरन होती है वो उस
चरम से बड़ी है जो शायद
तुम्हें पूर्ण पाने से मिले |
बीच सागर में ,तपती दोपहरी में
अकेले बेड़े पर भटकते नाविक के लिए
जैसे जीवनदायक है जलद की कुछ बूंदे
वैसे ही अनमोल हैं क्षण-क्षण
जो तुम्हारे साथ बीताता हूँ |
मोल चीजों के होने से नहीं होता अपितु
मोल बढ़ता है ज़रूरत होने से
और ये सच है कि मेरा जीवन
अभी झुलसते मरुस्थल सा है
जहाँ सैकड़ो मृग –मरीचिकाएँ उभरती हैं
और मेरी प्यास हाँफ-हाँफ कर भटकती है
ऐसे में तुम्हारा सामीप्य मरुधान है
अल्प समय का ही सही
तुमसे मेरी समस्या का निदान है
|सोमेश कुमार (२१/०८/०९)
Comment
मिथिलेश भाई जी एवं श्याम नारायन भाई जी हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया |शिज्ज शक्र भाई जी आपको रचना पसंद आई तो लिखना सार्थक हुआ| सौरभ सर का आशीष मिलना और मार्गदर्शन हमेशा अच्छे रचनाकर्म के लिए प्रेरित करता है |
अच्छा प्रयास हुआ है. तथ्य विन्यास पर और ध्यान दें.
शुभकामनाएँ.
बहुत बढ़िय़ा आदरणीय सोमेश जी बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं, सादर बधाई इस रचना के लिये
सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई |
सुन्दर भावाभिव्यक्ति आदरणीय सोमेश भाई ... बहुत बहुत बधाई ....
क्या पंक्तिया है .... वाह्ह्ह
और मेरी प्यास हाँफ-हाँफ कर भटकती है
ऐसे में तुम्हारा सामीप्य मरुधान है
अल्प समय का ही सही
तुमसे मेरी समस्या का निदान है
शुक्रिया ,पढ़ने वालों का भी और पढ़ कर अपनी अमूल्य टिप्पणी देने वाले मित्रों एवं आदरणीय अग्रजों का
........ प्यास हाँफ-हाँफ कर भटकती है,सुन्दर रचना ,बढ़िया प्रयास ,हार्दिक बधाई सोमेश भाई !
सोमेश जी
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति दी आपने i
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